Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान बरिक स्वरूप से भी भिन्न ऐसे अनंत भेदों का वाद स्थापित हुआ। जिसने एक ओर से सब प्रकार के अभेदों को मिथ्या बतलाया और दूसरी तरफ से अंतिम भेदों को वाणी तथा तर्क की प्रवृत्ति से शुन्य कह कर मात्र अनुभवगम्य बतलाया । ये दोनों वाद अंत में शुन्यता के तथा स्वानुभवगग्यता के परिणाम पर पहुंचे सही, पर दोनों का लक्ष्य अत्यंत भिन्न होने के कारण वे आपस में बिलकुल ही टकराने और परस्पर विरुद्ध दिखाई देने लगे। - उक्त मूलभूत दो विचारधाराओं में से फूटने वाली या उनसे सम्बन्ध रखने वाली भी अनेक विचारधाराएँ प्रवाहित हुई। किसी ने अभेद को तो अपनाया, पर उसकी व्याप्ति काल और देश पट तक अथवा मात्र कालपट तक रखी । स्वरूप या द्रव्य तक उसे नहीं बढ़ाया । इस विचार धारा में से अनेक द्रव्यों को मानने पर भी उन द्रव्यों की कालिक नित्यता तथा दैशिक व्यापकता के वाद का जन्म हुआ जैसे सांख्य का प्रकृति-पुरुषवाद। दुसरी विचारधारा ने उसकी अपेक्षा भेद का क्षेत्र बढ़ाया। जिससे उसने कालिक नित्यता तथा दैशिक व्यापकता मान कर भी स्वरूपतः जड़ द्रव्यों को अधिक संख्या में स्थान दिया जैसे परमाणु, विभुद्रव्यवाद ।
अद्वैतमात्र को या सन्मात्रको स्पर्श करनेवाली दृष्टि किसी विषय में भेद सहन न कर सकने के कारण अभेदमूलक अनेकवादों का स्थापन करे, यह स्वाभाविक ही है। हुआ भी ऐसा ही । इसी दृष्टि में से कार्य-कारण के अभेदमूलक मात्र सत्कार्यवाद का जन्म हुआ। धर्म-धर्मी, गुण-गुणी, आधार-आधेय आदि द्वंद्वों के अभेदवाद भी उसीमें से फलित हुए । जब कि द्वैत और भेद को स्पर्श करनेवाली दृष्टि ने अनेक विषयों में भेदमूलक ही नाना वाद स्थापित किये। उसने कार्य कारण के भेदमूलक मात्र असत्कार्यवाद को जन्म दिया तथा धर्म-धर्मी, गुण-गुणी, आधार-आधेय आदि अनेक द्वंद्वों के भेदों को भी मान लिया। इस तरह हम भारतीय तत्त्वचिंतन में देखते हैं कि मौलिक सामान्य और विशेष दृष्टि तथा उनकी अवान्तर सामान्य और विशेष दृष्टियों में से परस्पर विरुद्ध ऐसे अनेक मतों-दर्शनों का जन्म हुआ; जो अपने विरोधिवाद की आधारभूत भूमिका की सत्यता की कुछ भी परवा न करने के कारण एक दूसरे के प्रहार में ही चरितार्थता मानने लगे। __ सद्वाद अद्वैतगामी हो या द्वैतगामी जैसा कि सांख्यादि का, पर वह कार्य-कारण के अभेद मूलक सत्कार्यवाद को बिना माने अपना मूल लक्ष्य सिद्ध ही नहीं कर सकता जब कि असद्वाद क्षणिकगामी हो जैसे बौद्धों का, स्थिरगामी हो या नित्यगामी हो जैसे वैशेषिक आदि का-पर वह असत्कार्यवाद का स्थापन बिना किये अपना लक्ष्य स्थिर कर ही नहीं सकता । अतएव सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद की पारस्परिक टक्कर हुई। अद्वैतगामी और द्वैतगामी सद्वाद में से जन्मी हुई कूटस्थता जो कालिक नित्यता रूप है और विभुता जो दैशिक व्यापकतारूप है उनकी-देश और कालकृत निरंश अंशवाद अर्थात् निरंश क्षणवाद के साथ टक्कर हुई; जो कि वस्तुतः सद्दर्शन के विरोधी दर्शन में से फलित होता है। एक तरफ से सारे विश्व को अखण्ड और एक तत्त्वरूप माननेवाले और दूसरी तरफ से उसे निरंश अंश
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