Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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'प्रस्तावना
बिना जाने किसी तरह भारतीय प्रमाणशास्त्र का पूरा अध्ययन हो ही नहीं सकता। पूर्वाचार्यों की उस देन में हेमचन्द्र ने अपनी ओर से कुछ भी विशेष अर्पण किया है या नहीं और किया है तो किन मुद्दों पर !
१. जैनाचार्यों की भारतीय प्रमाणशास्त्र को देन १. अनेकान्तवाद-सबसे पहली और सबसे श्रेष्ठ सब देनों की चाबी रूप जैनाचार्यों की मुख्य देन है अनेकान्त तथा नयवाद का शास्त्रीय निरूपण ।
विश्व का विचार करनेवाली परस्पर भिन्न ऐसी मुख्य दो दृष्टियाँ हैं। एक है सामान्यगामिनी और दूसरी है विशेषगामिनी । पहली दृष्टि शुरू में तो सारे विश्व में समानता ही देखती है पर वह धीरे-धीरे अभेद की ओर झुकते २ अंत में सारे विश्व को एक ही मूल में देखती है और फलतः निश्चय करती है कि जो कुछ प्रतीति का विषय है वह तत्त्व वास्तव में एक ही है। इस तरह समानता की प्राथमिक भूमिका से उतर कर अंत में वह दृष्टि तात्त्विकएकता की भूमिका पर आ कर ठहरती है । उस दृष्टि में जो एक मात्र विषय स्थिर होता है, वही सत् है। सत् तत्त्वमें आत्यंतिक रूप से निमम होने के कारण वह दृष्टि या तो भेदों को देख ही नहीं पाती या उन्हें देख कर भी वास्तविक न समझने के कारण व्यावहारिक या अपारमार्थिक या बाधित कह कर छोड़ ही देती है। चाहे फिर वे प्रतीतिगोचर होने वाले भेद कालकृत हों अर्थात् कालपट पर फैले हुए हों जैसे पूर्वापररूप बीज, अंकुर आदि; या देशकृत हों अर्थात् देशपट पर वितत हों जैसे समकालीन घट, पट आदि प्रकृति के परिणाम; या द्रव्यगत अर्थात् देशकाल-निरपेक्ष साहजिक हों जैसे प्रकृति, पुरुष तथा अनेक पुरुष ।
इसके विरुद्ध दुसरी दृष्टि सारे विश्व में असमानता ही असमानता देखती है और धीरे-धीरे उस असमानता की जड़ की खोज करते करते अंत में वह विश्लेषण की ऐसी भूमिका पर पहुँच जाती है, जहाँ उसे एकता की तो बात ही क्या, समानता भी कृत्रिम मालूम होती है । फलतः वह निश्चय कर लेती है कि विश्व एक दूसरे से अत्यंत भिन्न ऐसे भेदों का पुंज मात्र है। वस्तुतः उसमें न कोई वास्तविक एक तत्त्व है और न साम्य ही। चाहे वह एक तत्त्व समग्र देशकाल-व्यापी समझा जाता हो जैसे प्रकृति; या द्रव्यभेद होने पर भी मात्र काल व्यापी एक समझा जाता हो जैसे परमाणु ।
उपर्युक्त दोनों दृष्टियाँ मूल में ही भिन्न हैं। क्योंकि एक का आधार समन्वय मात्र है और दूसरी का आधार विश्लेषण मात्र । इन मूलभूत दो विचार सरणियों के कारण तथा उनमें से प्रस्फुटित होनेवाली दुसरी वैसी ही अवान्तर विचारसरणियों के कारण अनेक मुद्दों पर अनेक विरोधी वाद आप ही आप खड़े हो जाते है। हम देखते हैं कि सामान्यगामिनी पहली दृष्टि में से समग्र देश-काल-व्यापी तथा देश-काल-विनिर्मुक्त ऐसे एक मात्र सत्-तत्त्व या ब्रह्माद्वैत का वाद स्थापित हुआ; जिसने एक तरफ से सकल भेदों को और तग्राहक प्रमाणों को मिथ्यां बतलाया और साथ ही सत्-तत्त्व को वाणी तथा तर्क की प्रवृत्ति से शुन्य कह कर मात्र अनुभवगम्य कहा । दूसरी विशेषगामिनी दृष्टि में से भी केवल देश और काल भेद से ही भिन्न नहीं
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