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भावना तथा उसकी यथायोग्य अभिव्यक्ति करता है। इसीकारण दिगम्बर साधु त्रिकाल सामायिक के क्रम में सामायिक-आत्मध्यान के अनन्तर
“सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदम्, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् ।
मध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।।" —पढ़कर परकल्याण की अभिव्यक्ति भावों द्वारा व्यक्त करता है। इसका आधार समाज है। समाज में उच्च-आदर्श साधु ही होता है। जब-जब भी समाज में नैतिक पतन, भ्रष्टाचार आदि होता है, उस समय ऐसे पथप्रदर्शक समाज में आदर्श रूप में प्रगट होते हैं। आगमोक्त दिगम्बर साधु की कथनी और करनी एक होने से समाज-सुधार में अमोघ प्रभाव पड़ता है। ऐसे ही उच्च-आदर्श के प्रतिमूर्ति चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर जी मुनिराज का इस बीसवीं सदी के प्रारंभ में दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य के बेलगांव जिले के येलवुड गाँव में वि०सं० 1929 (ई० सन् 1873) में प्रादुर्भाव हुआ। आपकी विद्यालयी-शिक्षा मात्र कक्षा तीन तक ही हुई। तत्कालीन भारत में बालविवाह प्रथा होने से 9 वर्ष की उम्र में विवाह हो गया। षण्मास के बाद पत्नि-विरह हो गया। यह सर्वदा का वियोग ही वैराग्यजनक हुआ। गार्हस्थ्य जीवन-यापन करते हुए भी एकाकी होने से अध्यात्म-साधना प्रारम्भ की। अध्यात्म-साधना की परिपक्वता-हेतु 45 वर्ष की वय: में ही जैनेश्वरी-प्रवज्या अंगीकार की, मानो स्व-पर कल्याण के लिए ही कमर कसी हो। जिनमुद्रा में रहते हुए भी आचार्यश्री ने भारत के अनेक राज्यों में पदयात्रा करते हुये उपदेशों द्वारा अध्यात्म-जगत् के साथ-साथ सामाजिक-संसार में भी नई चेतना का संचार किया, जिससे तत्सामयिक देश में सभ्यता और संस्कृति का उन्नयन हुआ। ऐसे उपक्रम अनेक थे, जिनका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है
शूद्र-उदार :- भारत में उस समय शूद्रों के प्रति अस्पृश्य की भावना बहुत थी, तब महाराज श्री ने उपदेश दिया कि “इन शूद्रों को शूद्र न समझो, ये अपने ही समान जीवनधारी प्राणी हैं।" हरिजनों के बारे में कहा कि- "उनके साथ खाने-पीने से उनका उद्धार नहीं होगा, अपितु अपने समान उन्हें जीवन जीने के साधन उपलब्ध कराओ, सदाचार पथ में आरुढ़ करो तथा उनकी आजीविका की व्यवस्था करने से 'शूद्र-उद्धार' अभियान सफल होगा।"
व्यसन-मुक्ति :- अपने विहारकाल में आपने सहस्रों लोगों को व्यसनमुक्त कराया। आत्मीय स्नेह से समझाकर मद्य-मांस, बीड़ी, तम्बाकू पीने का त्याग कराया। जनवरी 1957 में संभलपुर जाते समय रायपुर (जो कि अब नवगठित राज्य 'छत्तीसगढ़' की राजधानी है) में हजारों आदिवासियों ने आपके उपदेशों से प्रभावित होकर मांस खाना, शराब पीना, शिकार खेलना त्याग दिया। वि०सं० 1991 में उदयपुर जिले के धरियावदनरेश श्री रावजी खुमान सिंह जी ने आपके सदुपदेश से आजीवन शिकार का त्याग किया,
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000