Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 58
________________ प्राकृतभाषा का स्वरूपएवं भेद-प्रभेदों का परिचय –श्रीमती रंजना जैन प्राकृतभाषा का संबंध बारह भाषा-परिवारों में से 'भारोपीय परिवार' से है। इस परिवार के भी आठ उपभाषा परिवार है। उनमें से प्राकृत का संबंध पाँचवें उपपरिवार 'भारत ईरानी' अथवा 'आर्यभाषा उपपरिवार' से है। इसकी भी तीन शाखायें है— ईरानी, दरद एवं भारतीय आर्य शाखा परिवार। इनमें से प्राकृत का संबंध 'भारतीय आर्य शाखा परिवार' से है। अत: भारतीय आर्यभाषा का ही एकरूप ही प्राकृतभाषा है। 'प्राकृत' शब्द की व्युत्पत्ति वस्तुत: 'प्राकृत' शब्द की उत्पत्ति प्रकृति से हुई है। प्रकृति अर्थात् स्वभाव। और 'प्रकृत्या भवं प्राकृतम्' अर्थात् जो स्वाभाविक रूप से उद्भूत हुई है, वही प्राकृत है। इसके अनुसार स्वभावत: जो बोला जाये, सो प्राकृत है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार विश्व के प्रत्येक मनुष्य के स्वाभाविक वाग्व्यवहार को हम 'प्राकृत' कह सकते हैं। इसकी कतिपय व्युत्पत्तियाँ इसप्रकार हैं1. "प्रक्रियते यया सा प्रकृति:, तत्र भवं प्राकृतम्।" 2. “प्राक्पूर्वकृतं प्राक्कृतं - बाल-महिलादि-सुबोधं सकल-भाषा-निबन्धभूतं वचनं प्राकृतमुच्यते।” (नमिसाधु) 3. “प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम्।" 4. प्रकृतिरेव-प्राकृतं शब्दब्रह्म।” । 5. “प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम्।" 6. “प्राकृतेति-सकल जगज्जन्तून.....सहजो वचनव्यापार: प्रकृति:, तत्र भवं सैव वा प्राकृतम्।” प्राकृतभाषा का सुव्यवस्थित स्वरूप एवं बहुआयामी महत्त्व समस्त प्राचीन आचार्यों मनीषियों एवं महापुरुषों ने निर्विवादरूप से स्वीकार किया है। क्योंकि विश्व के प्राचीनतम साहित्य 'ऋग्वेद' की भाषा में भी प्राकृत की प्रवृत्तियाँ बहुलता से पाई जाती हैं। प्राकृत के महत्त्व को स्वीकार करते हुये वेदों की भाषा को संस्कृत एवं प्राकृत से समन्वित माना गया है— “संस्कृत-प्राकृताभ्यां यद् भाषाभ्यामन्वितं शुभम्।" – (ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिकांड) 00 56 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000

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