Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 90
________________ ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष कहलाता है" और अपने निवास स्थान लौट गए। प्रस्तुत लेखक इस लेख के माध्यम से उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता है। श्री आप्टे का विशालकाय संस्कृत-अंग्रेजी कोश भी भरत नाम की प्रविष्टि में यह उल्लेख नहीं करता है कि वेदकाल के भरत नाम पर यह देश भारत कहलाता है। यह कोश प्राचीन या पौराणिक संदर्भ भी देता है। उपर्यक्त चौथी व्युत्पत्ति- "ऋषभ-पुत्र भरत के नाम पर भारत ही भारतीय परंपरा में सर्वाधिक मान्य हुई है।" 2. बग्न मूर्तियाँ बहीं, कायोत्सर्ग तीर्थकर ___ ताम्र-पाषाण युग की चर्चा करते हुए श्री शर्मा ने लिखा है, "कई कच्ची मिट्टी की नग्न पुतलियाँ (!) भी पूजी जाती थीं।” (पृ०48) उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि इनके पूजनेवाले कौन थे? वे शायद यह जानते होंगे कि कुषाणकाल की जो जैन मूर्तियाँ मथुरा में मिली है, उनमें 6 ईंच की एक मूर्ति भी है। जैन व्यापारी जब विदेश व्यापार के लिए निकलते थे, तब वे इस प्रकार की लघु मूर्तियाँ अपने साथ पूजन के लिए ले जाया करते थे। आगे चलकर ऐसी प्रतिमायें हीरे, स्फटिक आदि की बनने लगीं। वे कुछ मंदिरों में आज भी उपलब्ध और सुरक्षित हैं। अत: उन्हें 'पुतलियाँ' और 'पूजी जानेवाली' दोनों एक साथ कहना अनुचित है। 3. पशुपतिनाथ की सील अहिंसासूचक है ... सिंधु-सभ्यता की एक सील (पृ0 66) के संबंध में श्री शर्मा ने लिखा है कि उसे देखकर 'पशुपति महादेव' की छवि ध्यान में आ गई। यदि वे ध्यान से देखते, तो ऐसा नहीं लिखते। इस सील में तीर्थंकर योग-अवस्था में ध्यानमग्न है। उनके एक ओर हाथी और बाघ हैं। दूसरी ओर गैंडा है। पाठक समझ सकते हैं कि ये परस्पर बैरी या विरोधी जीव हैं, किंतु अपने बैर को भूलकर वे शांत-भाव से बैठे हैं। योगी के आसन के नीचे दो हिरण बिना किसी भय के स्थित हैं। यह तीर्थंकर की उपदेश सभा में जिसे 'समवसरण' कहते हैं, संभव होता है। कुछ जैन मंदिरों में शेर और गाय को एक ही पात्र से पानी पीते हुए अंकित देखा जा सकता है। ऐसी एक घटना एक अंग्रेज शिकारी के साथ चटगांव' में हुई थी। जब उसके हाथी ने शेर के आने पर उसे नीचे पटक दिया, तब शिकारी भागकर एक मुनि के पास जा बैठा। शेर आया, किंतु अपने शिकार के लिए आए शत्रु को बिना हानि पहुँचाए लौट गया। ___वैसे पशुपति में 'पशु' शब्द का अर्थ ही गलत लगाया जाता है। इसका अर्थ देह या आत्मा है। जिसने इन्हें अपने वश में कर लिया, वही पशुपतिनाथ' कहा जा सकता है। संस्कृत शब्दों का अर्थ प्रसंगानुसार करना ही उचित होता है। इस प्रकार का एक और उदाहरण पशु-संबंधी यहाँ दिया जाता है। 'ऋषभो वा पशुनामाधिपति: (तांवा० 14.2.5) तथा “ऋषभो वा पशुनां प्रजापति: (शत० ब्रा० 5, 12 00 88 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000

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