Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 104
________________ इन्हीं की प्रकीर्णक भजनों की एक और रचना 'दौलत-विलास' के नाम से अब प्रकाशित हुई है, जिसे विख्यात साहित्य-प्रकाशन संस्था 'भारतीय ज्ञानपीठ' ने प्रकाशित किया है। प्रकाशन-संस्था के स्तर के अनुरूप मुद्रण व प्रकाशन नयनाभिराम एवं स्तरीय हैं। विद्वान् संपादक की संक्षिप्त होते हुये भी महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना भी चित्ताकर्षक हैं। पुस्तक के प्रारंभ में मंगलाचरण-स्वरूप “सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि...” वाली बहुप्रचलित एवं अनेक बार प्रकाशित हो चुकी है। इसके उपरान्त आदिनाथ स्वामी, अभिनंदननाथ जी, पद्मप्रभ जी, चन्द्रप्रभ जी, वासुपूज्य स्वामी, शान्तिनाथ जी, कुंथुनाथ जी, नमिनाथ जी, नेमिनाथ जी, पार्श्वनाथ जी एवं महावीर स्वामी के स्तुतिपरक लगभग 24 भजन/स्तुतियाँ हैं। इसके बाद लगभग 100 भजन दर्शन-अध्यात्म एवं भक्ति का अनुपम त्रिवेणी संगम प्रस्तुत करते हैं। इनमें से भी कई भजन पूर्व-प्रकाशित भजन-संग्रहों में प्रकाशित मिल सकते हैं। किंतु पं० दौलतराम जी की समग्र कृति के रूप में दौलत-विलास' में उनका प्रकाशन एक व्यापक दृष्टिबोध देता है। इस लोकोपयोगी प्रकाशन के लिए प्रकाशक-संस्थान तथा सम्पादक-अनुवादक विद्वान् —दोनों ही साधुवाद के पात्र हैं। –सम्पादक ** (5) पुस्तक का नाम : दीपावली-पूजन सम्पादिका : श्रीमती नीतू जैन प्रकाशक : श्री नानगराम जैन जौहरी मूल्य : दस रुपये, (पपरबैक, डिमाई साईज़, पृष्ठ 56) दीपावली-पजन' सम्बन्धी सामग्री कमोबेश अनेकों पूजन-पाठ की पुस्तकों में तथा स्वतंत्र लघुकृतियों के रूप में यद्यपि अनेकत्र अनेकोंबार प्रकाशित हो चुकी है। इस संस्करण में विषयगत व्यापकता तथा अपेक्षाकृत शुद्ध प्रकाशन की प्रमुखता है। लोकव्यवहार की उपयोगी यह पुस्तक संभवत: अनेक लोगों के काम आयेगी। विदुषी संपादिका ने भी पर्याप्त श्रम किया है। इस उपयोगी प्रकाशन के लिये प्रकाशक श्रीमान् धर्मानुरागी नानगराम जी चैन जौहरी बधाई के पात्र हैं। सम्पादक ** "नरत्वेऽवि पशूयन्ते, मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः । पशुत्वेऽपि नरायन्ते, सम्यक्त्वव्यक्तचेतना।।" __ -(अमरकोश, 5/1/4 पृष्ठ 30) अर्थ:- मिथ्यात्व से व्याप्त है चित्त जिनका, ऐसे मिथ्यदृष्टि जीव मनुष्य होकर के भी पशुओं के समान आचरण करते हैं और सम्यक्त्व से युक्त है चेतना जिनकी. ऐसे | सम्यग्दृष्टि जीव पशु होते हुये भी मनुष्य के समान आचरण करते हैं। ** 10 102 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000

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