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वस्तुत: ऐसा महनीय प्रकाशन करके प्रकाशक-संस्थान की ही प्रतिष्ठा बढ़ी है। अनेकों जैन समाज की प्रकाशक-संस्थायें मात्र 'ट्रेक्ट' स्तर के प्रकाशन करके अपनी वाहवाही कराने की चेष्टा करती रहती हैं। हमारे प्राचीन आचार्यों एवं मनीषियों की अमूल्य धरोहर को प्रकाश में लाने का समय, भावना एवं सामर्थ्य संभवत: उनमें नहीं है। ऐसी स्थिति में यह प्रकाशन अवश्य ही मंगलकलश लेकर स्वागत करने योग्य एवं घर-घर में हर व्यक्ति के द्वारा पढ़ा जाने योग्य है।
विशेषत: छोटी-छोटी कथाओं को सुन्दर ढंग से गूंथकर रची गयी यह कृति हर आयुवर्ग एवं हर स्तर के व्यक्तियों के लिये सुबोधगम्य एवं प्रेरणास्पद सिद्ध हो सकेगी —ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। इसकी कथायें परम्परागत नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के साथ-साथ आधुनिक परिस्थितियों में भी बहुत प्रेरक है।
मैं विद्वद्वरेण्य संपादक एवं प्रकाशक-संस्थान का इस प्रकाशन के लिये हार्दिक अभिनंदन करता हूँ तथा समाज के प्रत्येक वर्ग से इसका स्वाध्याय करने की अपील करता हूँ। वस्तुत: यह प्रत्येक व्यक्ति के निजी संग्रह में रखने योग्य अनुपम रचना है।
–सम्पादक **
पुस्तक का नाम : भरत और भारत लेखक
: डॉ० प्रेमसागर जैन सम्पादन एवं प्रस्तावना : डॉ० सुदीप जैन प्रकाशक
: श्री कुन्दकुन्द भारती न्यास, नई दिल्ली-110067 मूल्य
: पन्द्रह रुपये, (डिमाई साईज, पेपरबैक, 48 पृष्ठ) हमारे देश का मूल नामकरण क्या था? और वह क्यों पड़ा? — इन बातों का ऐतिहासिक एवं पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आलोक में प्रस्तुतीकरण इस कृति में दृष्टिगोचर होता है। धर्म या संप्रदाय के पूर्वाग्रह से रहित होकर मात्र तथ्यात्मक सामग्री को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करना इनका मुख्य आकर्षण है। इसके आधार पर निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि इस देश का मूल एवं प्राचीनतम नाम 'अजनाभवर्ष' था, जो कि चौदहवें कुलकर नाभिराय (ऋषभदेव के पिताश्री) के नाम पर पड़ा था। तथा बाद में इसका नाम 'भारतवर्ष' हुआ, जो कि प्रथम चक्रवर्ती सम्राट् भरत (नाभिराय के पौत्र एवं ऋषभदेव के पुत्र) के नाम पर हुआ।
ऐसी तथ्याधारित सामग्री को प्रकाशित कराने के लिये प्रकाशक संस्थान अभिनंदनीय है। विशेषत: वर्तमान परिप्रेक्ष्य में, जब जैनधर्म और संस्कृति के बारे में सरकारी एवं साम्प्रदायिक संस्थाओं के प्रकाशनों में भरपूर अनर्गल तथ्यविहीन बातें प्रकाशित हो रहीं हैं, तब यह प्रामाणिक रचना प्रकाशित होना अत्यन्त सामयिक एवं बेहद उपयोगी है।
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000