________________
2. आषाढ़ शुक्ल द्वादशी :- आषाढ मास के शुक्लपक्ष की ही द्वादशी तिथि 'सुरगुरु-दिवस' या 'बृहस्पति-दिवस' के रूप में भी मनायी जाती रही है। 'एरण' स्थित गुप्तयुगीन स्तम्भलेख में इसका निम्नानुसार उल्लेख मिलता है—
“आषाढमास शुक्लद्वादश्यां सुरगुरोर्दिवसे।" ___3. आषाढ़ शुक्ल एकादशी :- जैन-परम्परा के मूलग्रंथ 'छक्खंडागमसुत्त' की 'ज्ञान-विज्ञान का विश्वकोश' कही जाने वाली विशालकाय 'धवला' टीका की पूर्णता इस तिथि को हुई थी, इसका स्वयं टीकाकार उल्लेख करते हैं“आसाढमास-सुक्कपक्ख-ऍक्कारसीए पुव्वण्हे गंथो समाहिदो।" .
-(धवला, 1/1/1, पृष्ठ 71) 4. आषाढी-अष्टातिका पर्व :- आषाढ मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी से लेकर पूर्णिमा तक आठ दिन यह पर्व जैन-परम्परा में धार्मिक एवं आध्यात्मिक उत्साहपूर्वक विविध धर्मानुष्ठानों के साथ मनाया जाता है। इस बारे में उल्लेख मिलता है“आसाढ-कत्तिय-फग्गुणमासाणं अट्ठमियाइं कादूण जाव पुण्णिमंति।"
-(णंदीसरभत्ति, अंचलिका, पृष्ठ 132) __ ऐसे ही अन्य कई उल्लेख आषाढमास के शुक्लपक्ष की तिथियों की महत्ता बताने वाले जैन-परम्परा एवं अन्य भारतीय परम्पराओं में पाये जाते हैं। इनका व्यापक दृष्टियों से अध्ययन एवं अनुसंधान अपेक्षित है।
अग्निकायिक जीव "जो तेऊकाय जीवे, अदिसद्दहदि जिणेहि पण्णत्तं । उवलद्ध पुण्णपावस्स, तस्सुवट्ठावण अत्थि ।।"
- (आचार्य कुन्दकुन्द, मूलाचार, 10/140) अर्थ:- जो तीर्थंकर जिनेन्द्रों ने कहे हुए अग्निकायिक जीवों और तदाश्रित सूक्ष्म जीवों के ऊपर श्रद्धा रखता है तथा पुण्यपाप का स्वरूप जानता है, वह मोक्षमार्ग में स्थिर रहता है।
एक दीपक एक ही समय में (1) अन्धकार को प्रकाशरूप में परिवर्तन करता है, (2) प्रकाश फैलाता है, (3) गर्मी प्रताप को उत्पन्न करता है, (4) दाहकत्व गुण देखा जाता है, (5) बाती के मुख खाता है, (6) द्रव्य पदार्थ तेल को पीता है, (7) धूम्र कालिमा (सौच) करता है। “दीपो भक्षयते ध्वाँक्षं कज्जलं च प्रसूयते।"
**
1098
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000