Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 98
________________ जैन-परम्परा में मिलता है, वह है 'आषाढी पूर्णिमा' का इस दिन समस्त जैनश्रमण एवं श्रमणायें अपना 'चातुर्मास' या 'वर्षायोग' स्थापित करते हैं। चूँकि इसके बाद अगले दिन से 'श्रावण' मास प्रारम्भ होता है, तथा सावन-भादों का समय प्रबल वर्षा का समय होता है। और वर्षा के समय नदी-नालों में बाढ़ की स्थिति हो जाने, सर्वत्र जल की बहुलता होने एवं जल के प्रभाव से हरित वनस्पतियों तथा वर्षाकालीन उद्भिज्' जीव-जन्तुओं की अधिकता हो जाने से जैनश्रमण एवं श्रमणायें 'अहिंसा महाव्रत' में दोष न लगे —इस दृष्टि से अतिरिक्त गमनागमन का निरोध करके मर्यादापूर्वक सीमितक्षेत्र में ही निवास करते हुए धर्मसाधन करते हैं। इसके परिणामस्वरूप उस क्षेत्र में दीर्घावधि तक धर्मप्रभावना का योग बना रहता है; तथा उस क्षेत्र के निवासियों को वर्षा के कारण व्यापार आदि के निमित्त न जा सकने से उत्पन्न खालीपन की स्थिति नहीं रहती है और वे भी श्रमणसंघों के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्तकर प्रसन्नतापूर्वक धर्मसाधन करते हैं। इसप्रकार यह तिथि गृहस्थों एवं साधुवर्ग —दोनों के लिए मील का पत्थर' सिद्ध होती है।। ____ यहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या यह तिथि मात्र मानसून के प्रभाव की विवशता से महनीय बन गयी है, या इसके कुछ अन्य भी कारण हैं? भारतीय वाङ्मय के आलोडन से इस तिथि की महत्ता के विषय में कुछ और भी महत्त्वपूर्ण तथ्य प्राप्त होते हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है 1. कर्क-सक्रान्ति :- भारतीय ज्योतिष के अनुसार 'धूम्रमार्गी कर्क-संक्रान्ति' इसी आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन होती है। 2. सूर्य-चंद्र-दर्शन :- कृतयुग' के प्रारम्भ में जब प्रथम बार चन्द्र और सूर्य के प्रथम बार हुए दर्शन से प्रजाजनों को उत्पन्न भय का निवारण प्रतिश्रुति' नामक प्रथम कुलकर ने इसी दिन किया था। अत: इसका पौराणिक महत्त्व है। इस बारे में आचार्य यतिवृषभ लिखते हैं “चंदादिच्चाण आसाढपुण्णिमाए।” —(तिलोयपण्णत्ति, 21430 पृष्ठ 127) 3.संवत्सरतम :- इसी तिथि को प्राचीनकाल में वर्ष की पूर्णता मानी जाती थी। इस दिन पूरे वर्ष का हिसाब-किताब पूर्ण कर लेखा-परीक्षक को सौंप दिया जाता था। इसीलिए आचार्य पाणिनी के भाष्यकार ने इसे 'संवत्सरतम:' संज्ञा प्रदान की है"संवत्सरस्य पूर्णो दिवस: संवत्सरतमः।" -(पाणिनी व्याकरण, काशिका भाष्य, 5/2/37) 4. सांवत्सरिक प्रतिक्रमण-दिवस :- जैन-परम्परा में श्रमणों के एक विशेष चारित्रिक शुद्धि-अनुष्ठान को प्रतिक्रमण' कहते हैं। इसके दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक एवं युगप्रतिक्रमण आदि कई भेद गिनाये जाते हैं। इनमें 00 96 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000

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