________________
प्राकृत-सट्टकों में प्रकृति-चित्रण
-डॉ० धर्मचन्द्र जैन महाकवि राजशेखर (9वीं सदी) की कर्पूरमजरी, नयचन्द्र (14वीं सदी) की रम्भामज्जरी, रुद्रदास (17वीं सदी) की चन्द्रलेखा, मार्कण्डेय (17वीं सदी) की विलासवती. विश्वेश्वर (18वीं सदी) की शृंगारमञ्जरी और घनश्याम (18वीं सदी) कृत आनन्दसुन्दरी —ये छह प्राकृत-नाटिकायें उपलब्ध होती हैं, जिन्हें सट्टक के नाम से जाना जाता है।
सट्टक यह शब्द किससे विकसित हुआ, बहुत समय तक विद्वान् मनीषियों के लिये चर्चा का विषय बना रहा। भाषा में इसके लिए 'साटक, शाटक तथा साडिक' शब्द प्रयुक्त मिलते हैं। सर्वप्रथम भरहुत स्तूप (200ई०पू०) में 'साडिक' पद नृत्य' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ मिलता है। सम्भवत: यह साडिक' ही कालान्तर में विकसित होकर 'सट्टक' के रूप में परिवर्तित हुआ हो।
काव्यशास्त्रकारों की दृष्टि में सट्टक' क्या है? —यह जान लेना अधिक उपयोगी है। 'नाटिका' से साम्य रखनेवाली, प्राकृतभाषा में निबद्ध, विष्कम्भक' और 'प्रवेशक' से रहित रचना को राजशेखर सट्टक' बतलाते हैं। अभिनवगुप्त (1050 के लगभग) 'सट्टक' में शृंगार रस को अत्यन्त उपयोगी मानते हैं। कविराज विश्वनाथ (14वीं शती का पूर्वार्द्ध) 'सट्टक' उसे मानते हैं, जिसकी सम्पूर्ण रचना प्राकृत में हो, प्रवेशक' तथा विष्कम्भक' जहाँ न हों, प्रचुर अद्भुतरस हो, जिसके अंकों का नाम जवनिका' हो तथा जिसमें अन्य विशेषतायें 'नाटिका' के सदृश होती हैं।
इसप्रकार उपर्युक्त विद्वान् आचार्यों के मन्तव्यों से स्पष्ट है कि 'सट्टक' वह है, जिसमें विष्कम्भक' तथा प्रवेशक' का अभाव होता है, प्राकृत का प्रकृष्ट प्रयोग होता है, अंक के लिए जवनिकान्तर' शब्द प्रयुक्त होता है तथा 'नाटिका' से सादृश्य रखने के कारण सट्टक की भी कथावस्तु कवि-कल्पित होती है, नायक प्रख्यातवंशी धीरललित होता है। इसमें अंगीरस के रूप में भंगाररस का समावेश होता है, राजकुलोत्पन्न ज्येष्ठा नायिका (महादेवी) तथा कनिष्ठा नायिका (परिणायिका) की योजना होती है।
रम्भामञ्जरी को छोड़कर उपर्युक्त समस्त सट्टक काल्पनिक इतिवृत्त पर आधारित हैं। कैशिकीवृत्ति के अनुकूल विविध विधासम्पन्न शृंगाररस इनमें प्रधान है। कहीं-कहीं
0074
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000