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कर्पूरमञ्जरी और चंदलेहा नाटिका के निम्न श्लोक भी पठनीय हैं :(1) “लावण्णं णवजच्चकंचणणिहं णेत्ताण दीहत्तणं।
कण्णेहिं खलिदं कवोलफलआ दोखंडचंदोवमा।। एसा पंचसरेण संजिदधणूदडेण रक्खिज्जए।
जेणं सोसण-मोहणप्पहुदिणो बिझंति मं मग्गणा।।" (2) “णेत्तं कंदोट्ठमित्तं अहरमणि-सिरि बंधुजीऍक्कबंधू ।
वाणी पीऊस-वेणी णवपुलिण-अल-त्थोर-बिंबो णिअंबो।। गत्तं लाअण्ण-सोत्तं घण-सहिण-भरच्चंत-दुझंत-मज्झं।
उत्तेहिं किं बहूहिं जिणइ मह चिरा जम्म-फुल्लं फलिल्लं ।।" 3. प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण
प्राकृति का सौन्दर्य अनेकरूपों में मानव को उद्दीप्त करता है, विशेषकर प्रेमियों के साहचर्य और वियोग में प्रकृति उन्हें विशिष्टरूप से उद्दीप्त करती है। आनन्दसुन्दरी सट्टक के द्वितीय जवनिकान्तर में जब वैतालिक मध्याह्न की उद्घोषणा के साथ नायिका के सौन्दर्य का वर्णन करते हैं, तब नायिका के वियोग में पीड़ित राजा का सन्ताप मध्याह्न वेला की उद्घोषणा से और भी अधिक बढ़ जाता है और वह विदूषक से कह पड़ता है— “मित्र, इस विरहावस्था में नायिका के सौन्दर्य-वर्णन के साथ मध्याह्न की उद्घोषणा वृश्चिक-वेदना के समान असह्य है" “वअस्स बिंछुअ-वेदणा-दूसहं विरह-दहण-संदीवणज्जं खु बंदिजण-वण्णणं ।
यहाँ पर नायक और नायिका की विरहावस्था स्पष्ट दर्शित है और मध्याह्न की उद्घोषणा उद्दीपनभाव है।
कर्पूरमजरी के द्वितीय जवनिकान्तर के प्रारम्भ में ही आता है कि राजा कर्पूरमञ्जरी की याद में विहल है और उसके सौन्दर्य की बारम्बार प्रशंसा करता है। तभी विदूषक और विचक्षणा आ जाते हैं। राजा को विचक्षणा कर्पूरमञ्जरी द्वारा लिखित एक केतकीपत्रलेख देती है। सट्टक 'चंदलेहा' में भी ऐसा ही मिलता है। वहाँ राजा मानवेद नायिका के अंग-सौन्दर्य का स्मरण कर विहल हो जाता है। विदूषक राजा को चन्द्रलेखा का हस्तलिखित पत्र देता है।
इसप्रकार प्राकृत-सट्टकों में प्रकृति का विविध सौन्दर्य मानव-मन को प्रतिपल उद्दीप्त करता हुआ तत्पर दृष्टिगोचर होता है। जहाँ नायक एक और नवोढा नायिका से मिलन के लिए आतुर दिखलायी देता है, वहीं नायिका भी नायक से मिलने के लिए उतनी ही उतावली दृष्टिगोचर होती है। वसन्तागमन के अवसर पर विरहिणी की दशा का चित्रण इसका स्पष्ट प्रमाण है। रम्भामञ्जरी सट्टक में निम्न विरह-चित्रण देखिये
वसन्त के आगमन पर जिसका पति विदेश गया हुआ है, वह विरहिणी कैसे जीवित
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000
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