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प्राकृत नाटिकाओं में अद्भुतरस के सन्निवेश के साथ ही 'रौद्र' एवं 'शांतरस' की भी झलक मिलती है । प्राय: सभी सट्टकों का एक-सा उद्देश्य – प्रणयकथा वर्णित करना । आज ही नहीं, पूर्व में भी स्त्रियाँ अपने अधिकारों के प्रति बराबर सजग रहती थीं । नाटक-कर्ताओं ने भी अपनी कृतियों विशेषकर सट्टकों में जहाँ अग्रमहिषी प्रगल्भा नायिका महादेवी को महाराज के प्रणय-प्रसंग में कठोर तथा बाधक वर्णित किया है; वहीं उन्होंने उसे अपने पति की हितचिन्तिका भी दिखलाया है । वही अग्रमहिषी महाराज के
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चक्रवर्तित्व की उपलब्धि-हेतु अपनी ममेरी, चचेरी अथवा मौसेरी बहन जो नवयौवना तथा अद्वितीय सुन्दरी है, के साथ उनका विवाह - सम्बन्ध कराने में पश्चात् अपनी सहर्ष स्वीकृति दे देती है ।
पाठक विद्वज्जनों में ‘कर्पूरमञ्जरी' सट्टक ही अधिक लोकप्रिय है। अग्रमहिषी द्वारा गौरी की प्रतिमा बनवाकर भैरवानन्द गुरु द्वारा उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करवाना, स्वयं दीक्षा लेना, भैरवानन्द से दक्षिणा लेने का आग्रह करना, दक्षिणास्वरूप महाराज को धनसारमंजरी-कर्पूरमंजरी को सौंपा जाना जहाँ इस सट्टक में विशेष है; वहीं 'श्रृंगारमञ्जरी' सट्टक में खासकर गान्धर्व विवाह के माध्यम से महाराज राजशेखर को 'श्रृंगारमञ्जरी' को अंगीकार करना कवि विश्वेश्वर की नूतन कल्पना को उजागर करता है। दूसरी ओर अभिशाप के कारण राक्षसी का होना, अभिशाप की समाप्ति पर आश्रम जैसे पुनीत - स पर मणिमालिनी द्वारा छोड़े जाने की घटना आदि भी 'श्रृंगारमञ्जरी' की मौलिकता को दर्शाता है। इसप्रकार इन सट्टकों में जहाँ वस्तु, नेता (लाने वाले) और रस का सफल चित्रण मिलता है; वहीं इन प्राकृत नाटिकाओं में प्रकृति-चित्रण भी बड़ा ही सजीव, आकर्षक एवं मनोहारी बन पड़ा है।
-स्थल
प्रकृति एवं मानव
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प्रकृति मानव की चिरसंगिनी रही है। मानव का प्रकृति की गोद में ही लालन-पालन होता है। उसे जीवन की प्रत्येक सुविधा प्रकृति से ही उपलब्ध होती है । अत: प्रकृति के प्रति उसका प्रेम स्वाभाविक है। प्रकृति ने विश्व में ऐसे दिव्य-सौन्दर्य का सृजन किया है, जिसका आभास मानव को वन, पर्वत, नदी, निर्झर, पश-पक्षी आदि में दृष्टिगोचर होता है । इसीकारण वह कभी उषा की राग-रंजित सौन्दर्य से अनुरक्त होता हुआ दिखलायी देता है, तो कभी सन्ध्या की नील - पीत मिश्रित अरुणिमा में आत्मविभोर हो उठता है । कभी शरद के सुरभितहास में मग्न हो थिरक उठता है, तो कभी वसन्तश्री की सुषमा में वह अपनी सुध-बुध खो बैठता है । प्रकृति का यही अनूठा सौन्दर्य मानव को हठात् आकृष्ट करता रहा है। प्रकृति ही वह चिर नूतन तत्त्व है, जो मानव को साहित्यिक जगत् की नित्य नवीनता प्रदान करता है । यही कारण है कि भारतीय वाङ्मय में प्रकृति कवियों द्वारा सदैव समादृत रही है ।
प्राकृतविद्या�जुलाई-सितम्बर 2000
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