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अरिहंत परमेष्ठी के प्रसाद से मोक्षमार्ग की सिद्धि होती है। इसलिये (प्राय: सभी) प्रधान-मुनियों ने शास्त्र के प्रारंभ में अरिहंत परमेष्ठी के गुणों की स्तुति की है। व्युत्पत्तिजन्य अर्थ ___ मंगल से तात्पर्य है— “मंगं सुखं लाति इति मंगलं” अर्थात् जो मंग' अर्थात् 'सुख' की प्राप्ति कराये, वह मंगल' है। एक अन्य व्युत्पत्ति के अनुसार “मम् गालयति इति मंगलं।" अर्थात् जो मम्' अर्थात् पापों को गलाता है, वह मंगल है। मंगलाचरण के उद्देश्य
"नास्तिकत्व-परिहार: शिष्टाचार-प्रपालनम् ।
पुण्यावाप्तिश्च निर्विन: शास्त्रादौ तेन संस्तुति:।।" अर्थ:- नास्तिकता का परित्याग, सभ्यपुरुषों के आचरण का पालन, पुण्य की प्राप्ति और विघ्न का विनाश – इन चार लाभों के लिये किसी कार्य के आरंभ में इष्ट-देवता की स्तुति की जाती है।
इन चार के अतिरिक्त ग्रंथ का उद्देश-कथन' भी मंगलाचरण में किये जाने से इसे भी इसका अंग मान लिया जाता है। मंगलाचरण के उद्देश्य एवं 'पवयणसार'
आचार्यप्रवर कुन्दकुन्द-प्रणीत ‘पवयणसार' ग्रंथ में किये गये मंगलाचरण में इन सभी उद्देश्यों का परिपालन किया गया है। 1. सर्वप्रथम आचार्य ने इष्टदेवता के रूप में शासननायक चरम तीर्थंकर भगवान्
वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार किया है। 2. जो अच्छे गुणों एवं गुणी व्यक्तियों में विश्वास रखता है, जो आत्मतत्त्व में आस्था
रखता है, उसे 'आस्तिक' कहते हैं। और इसके विपरीत आचरणवाले व्यक्ति को 'नास्तिक' कहा जाता है। चूंकि आचार्य कुन्दकुन्द ने वर्द्धमान स्वामी एवं पंचाचार आदि गुणों से युक्त परमेष्ठियों में आस्था एवं साम्यभाव की प्राप्ति रखी है; अत: नास्तिकता का परिहार हो जाता है। 3. शिष्टाचार से अभिप्राय है— “नहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति” अर्थात् किये गये
उपकार को सज्जन लोग कभी नहीं भूलते। वे उस उपकारी व्यक्ति के पीछे सदैव कृतज्ञता का भाव रखते हैं। चूंकि जैन-परम्परा में धर्मतीर्थ का प्रवर्तक शासननायक तीर्थंकर को ही माना जाता है। अत: शासननायक भगवान् महावीर एवं उनके धर्मतीर्थ का उल्लेख करके आचार्य ने यह संकेत दिया है कि इनके धर्मतीर्थ के प्रवर्तन के कारण ही श्रमण-परम्परा एवं कुन्दकुन्द को धर्मतत्त्व का बोध हुआ है। यद्यपि वर्तमान कालखण्ड में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ही जैनधर्म के मूल प्रवर्तक हुए हैं तथा उनके बाद भगवान् महावीर के पहिले 22 तीर्थंकर और हुये हैं। किंतु वर्तमान में
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000