Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 81
________________ इसका उपदेश कवि ने चन्द्रोदय ब्याज से इसप्रकार प्रस्तुत किया है “चन्द्र के भय से किंचित् प्रभा से युक्त यह सूर्य अपनी दीन किरणों के साथ कथमपि पश्चिम दिशा की ओर वैसे ही जा रहा है, जैसे नवीन अधिकारी के भय से निरन्तर व्याकुल पूर्वाधिकारी अपने बन्धुओं के साथ किसी ग्राम के लिए प्रस्थान कर देता है" "एसो चंद-भएण वासर-मणी किंचिप्पहा-चुंबिओ। दीणेहिं किरणेहि केहि वि समं जादो दिसं वारुणिं ।। गामं किंवि णवाहिआरि-जणिद-तासाणिस-व्वाउलो। बंधूहिं चइदेहि जाद-साहिदो पुव्वाहिआरी जह ।।" इसीप्रकार मित्रहीन होने पर कौन किसे सन्तुष्ट करता है? तथा भाग्य के विपरीत होने वाले की लोक में कौन गणना करता है? कोई नहीं। इसी तथ्य को कवि ने सूर्यास्त चित्रण के माध्यम से निम्न प्रकार उद्घाटित किया है— ___ सूर्य के चले जाने पर कमलिनी म्लान-मुख हो जाती है तथा भ्रमरपंक्ति कमल का परित्याग कर देती है। इसका तात्पर्य यह है कि भ्रमरावली सूर्य के अस्त होने के बाद कमल पर गूंजना छोड़ देती है, इसीप्रकार मित्रहीन होने पर उसे कौन सन्तुष्ट कर सकता है और जिसका भाग्य ही विपरीत हो, तो लोक में उसकी कौन गणना करता है? “गए दिणेसे णलिणी मिलाणा, को णाम संदुस्सइ मित्तहीणो। पंकेरुहं टक्कइ भिंगुपाली, गच्छंत मग्गं भुवि को गणेइ।।" आनन्दसुन्दरी से व्यतिरिक्त अन्य प्राकृत नाटिकाओं में भी कतिपय पद्य हैं, जिनमें नैतिक उपदेशों का प्रकाशन किया गया है। इनमें कवियों द्वारा प्रयुक्त सूक्तियों एवं सहज समागत मुहावरों में भी नैतिक उपदेश भरे पड़े हैं। ___ इस तरह निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि विविध रूपों में वर्णित प्रकृति-चित्रण की दृष्टि से 'प्राकृत सट्टक' पूर्णत: सफल हैं। सन्दर्भग्रंथ-सूची 1. “साडिक संमदं तुरं देवानं ।” — भरहुत, पृ० 75, (डॉ० रमानाथ मिश्र, भोपाल 1971) 2. द्र० चंदलेहा, भूमिका, पृ० 29 (डॉ० ए०एन० उपाध्ये, भारतीय विद्या भवन, बम्बई, 1945, प्रथम संस्करण) 3. वृत्तवर्तिष्यमाणानां कथांशानां निदर्शकः । संक्षेपार्थस्तु विष्कम्भो मध्यमपात्रप्रयोजितः।। -(दशरूपक 1/56) 4. तदेवानुदात्तोक्त्या नीचपात्रप्रयोजित:। प्रवेशो तद्वदेवात्र शेषार्थस्थोपसूचकः।। -(वही, 1/60) 5. सो सट्टओ त्ति भण्णइ दूरं जो णाडिआई अणुहरइ। किं उण एत्य पवेसअ-विक्कंभाई ण केवलं होति।। -(कर्पूमञ्जरी, 1/6) 6. द्र० संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, भाग 1, पृ0 104 (डॉ० एस०के०डे० अनु० मायाराम प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000 00 79

Loading...

Page Navigation
1 ... 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116