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काव्य में प्रकृति का उपयोग अनेक रूपों में दृष्टिगत होता है, जिसे यहाँ निम्नलिखित पाँच भागों में विभक्त कर अध्ययन किया जा सकता है । वे हैं— (1) आलम्बन के रूप में, (2) अलंकरण के रूप में, (3) उद्दीपन के रूप में, (4) मानवीकरण के रूप में और (5) नैतिक उपदेश-प्रकाशन के रूप में ।
प्राकृत सट्टकों में प्राय: उक्त मान्य समस्त रूपों के आधार पर प्रकृति-निरूपण किया गया है; जैसे कि :
1. प्रकृति का आलम्बन के रूप में चित्रण
प्रकृति का आलम्बन रूप वहाँ माना जाता है, जहाँ कवि प्रकृति के अनन्य सौन्दर्य में खो जाये। इसप्रकार के वर्णन में प्रकृति की प्रतिपाद्य होती है ।
" चंचलसंत कलमग्गिम मंजरीजं, णीडं भअंति णह संगममंडलाई ।
विओ - विहुरा विसिणी - दलम्मि, कंदंति मंदकरुणं सरको - अ- लोआ ।।” 2. प्रकृति का अलंकरण के रूप में चित्रण
कवि जब प्राकृतिक उपादानों का उपमा, रूपक आदि अलंकारों के रूप में उपयोग करता है, तब प्रकृति अलंकार के रूप में व्यवहृत मानी जाती है। प्राकृत-नाटिकाओं में कवि ने प्रकृति से उपमान लेकर अपने काव्य को बखूबी अलंकृत किया है । यहाँ कतिपय उदाहरण द्रष्टव्य हैं, जैसे कि आनन्दसुन्दरी में—
“हे राजन ! आपके मित्रगण चक्रवाक - मिथुन के सदृश प्रसन्न हो रहे हैं और शत्रुओं का समुदाय चकोर - समूह की भाँति खिन्न हो रहा है; आपको देखनेवाले दर्शकों के पाप के समान अन्धकार-पुंज दूर हो रहा है तथा सम्यक् उन्मीलित सूर्य की भाँति लोक में आपका प्रताप दुर्प्रक्ष्य हो रहा है"
“फारं णंदह चक्कवाअ-मिहुणं बघुक्करो दे जहा, जीवं जीव- गणो विसूरइ तहा तुज्झारि- जूहं जह। दट्ठूणं तुह पाअअं विअ गअं दूरं तमिस्संकुरं,
दुक्ख भुवने भवं जह तहा सूरो समुम्मीलइ । । ”
यहाँ कवि ने राजा की प्रशंसा में विभिन्न उपमानों के लिए उपम्रालंकार का प्रयोग किया है।
'मुख चन्द्रमा के समान, नेत्रयुगल केतकी - पुष्प के सदृश, लम्बी भुजायें लता की भाँति, दन्तपंक्ति का सौन्दर्य कुन्दपुष्प के समान है—
“मुहं चंदाआरं णअणजुअलं केदअणिहं । लदा-दीहा बाहा रअण- सुसमाकुंदसरिसी ।। ”
यहाँ कवि ने नायिका के विभिन्न अंगों के सौन्दर्य का वर्णन उपमानों के लिए उपमालंकार प्रयुक्त किया है।
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प्राकृतविद्या+ जुलाई-सितम्बर '2000