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2. मागधी प्राकृत
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यह मगध प्रांत विशेषत: पूर्वी भारत की भाषा थी । इसकी मूलप्रकृति भी 'शौरसेनी प्राकृत' है। इसकी प्रमुख विशेषतायें इसप्रकार हैं—
1. अकारान्त पुल्लिंग शब्दों के प्रथमा एकवचन में एकारान्त रूप बनते हैं, यथाएसो पुरिसो> एशे पुलिशे ।
2. 'रफ' के स्थान पर 'लकार' का प्रयोग होता है । यथा--- - पुरिस > पुलिश, कर > कल । 3. 'दन्त्य सकार' के स्थान पर 'तालव्य शकार' का प्रयोग होता है । यथा— सारस
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> शालश। किंतु संयुक्त अवस्था में ऐसा नहीं होता । यथा- वृहस्पति > वुहस्सदि । 4. ज' के स्थान पर 'य' आदेश हुआ है । यथा— जाणदि > याणदि । 5. 'च्छ' के स्थान पर 'श्च' आदेश होता है । यथा— गच्छ > गश्च ।
6. हृदय' शब्द को 'हडक्क' आदेश होता है । यथा— हृदयं ह्रिदयं हडक्कं । 3. पैशाची प्राकृ
इसकी भी प्रकृति शौरसेनी प्राकृत ही है। इसका उत्पत्ति स्थान 'कैकय प्रदेश' माना जाता है। पैशाची प्राकृत में चीनी तुर्किस्तान के खरोष्ठी लिपि के शिलालेख एवं महा गुणाढ्यकृत 'वड्ढकहा' विशेषत: उल्लेखनीय है । वागभट्ट के अनुसार यह पिशाच नामक जनजातीय मनुष्यों की भाषा थी । इसकी कुछ विशेषतायें इसप्रकार हैं
1. प्राय: वर्ग के तृतीय वर्ण के स्थान पर प्रथम वर्ण का तथा चतुर्थ वर्ण के स्थान पर द्वितीय वर्ण का प्रयोग मिलता है । यथा— गगणं > गकणं, मेघो > मेहो, राजा > राचा ।
2. शौरसेनी में 'त' के स्थान पर होने वाले दकार के रूप पैशाची में पुनः तकार में बदल गये । यथा- हो > हो ।
3. पैशाची प्राकृत में 'हृदय' शब्द के 'यकार' को 'पकार' हो जाता है । यथा— हिदयकं > हितपकं ।
4. 'ट वर्ग' के स्थान पर 'त वर्ग' हो जाता है । यथा— कुटुंब>
> कुतुब ।
5. संयुक्त 'ज्ज' के स्थान पर संयुक्त 'च्च' आदेश हो जाता है । यथा— कज्जं > कच्चं, अज्जं > अच्चं ।
6. दो स्वरों के मध्यवर्ती क् ग् च् ज् त् द् य् और व् का लोप प्रायः नहीं होता । यथा— श्रुतवली > सुतकेवली ।
7. क्रियारूपों में भविष्यत्काल के 'स्सि' प्रत्यय के स्थान पर 'एय्य' प्रत्यय प्रयुक्त होता है । यथा— हविस्सदि हुवे ।
इसप्रकार ईसापूर्वकाल में जहाँ शौरसेनी मागधी, एवं पैशाची ये तीन मूल प्राकृतें रही हैं; वहीं ईसोत्तर काल में धीरे-धीरे अवन्ती, प्राच्या, महाराष्ट्री एवं अर्धमागधी आदि का विकास हुआ। पाँचवीं शताब्दी ई० तक प्राकृतों का विकास चरम सीमा पर था ।
प्राकृतविद्या + जुलाई-सितम्बर '2000
DO 58