Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 68
________________ वह स्थान बना पायी। लोकसाहित्य एवं लोकरुचि से अनुशासित होकर जैसे ही क्षेत्रीयता के अनुसार रचनाधर्मिता को अपनाया होगा या रचनाधर्मिता जिस क्षेत्र में ढली होगी, अपना प्रभाव अवश्य डालने में समर्थ हुई होगी। जनता की भाषा प्राकृत का यही स्वरूप रहा होगा। इसका इतना प्रयोग या प्रवाह हुआ कि उसमें साहित्य भी लिखा गया, और एक समय तो प्राकृत सभी विधाओं में प्रयुक्त होने के कारण तथा जन-जन में स्थान बनाने के कारण भी लम्बे समय तक अपना प्रामाणिक रूप सुरक्षित करती रही। सर रिचर्ड पिशेल ने तो यहाँ तक भी कह दिया कि “प्राकृत भाषाओं की जड़ें जनता की बोलियों के भीतर जमी हुई हैं । और इनके मुख्य तत्त्व आदिकाल में जीती-जागती और बोली जानेवाली भाषा से लिये गये हैं । किन्तु बोलचाल की वे भाषायें जो बाद में साहित्यिक भाषाओं के पद पर प्रतिष्ठित हुई, संस्कृत की भाँति ही बहुत ठोकी-पीटी गईं; ताकि उनका एक सुगठित रूप बन जाये ।” - (प्रा० भा० का व्याकरण, पृ० 14 ) ‘गउडवहो' महाकाव्य में प्राकृतभाषा को जनभाषा माना है। इस काव्य में दृष्टान्त द्वारा कथन किया कि “जिसप्रकार जल समुद्र में प्रवेश करता है और समुद्र से ही वाष्परूप से बाहर निकलता है। इसी तरह प्राकृतभाषा में सब भाषायें प्रवेश करती हैं और इस प्राकृतभाषा से ही सब भाषायें निकलती हैं” : “सयलाओ इमं वाया विसंति ऍत्तो य णेंति वायाओ । एंति समुद्दं चि णेंति सायराओ च्चिय जलाई । । ” • अर्थात् जनभाषा से ही समस्त भाषाओं का विकास स्वीकार किया है। शौरसेनी प्राकृतभाषा में स्वतंत्र रूपों की निर्माण-प्रक्रिया के कारण इसका अनुशासन जो भूतबलि, पुष्पदन्त, धरसेन, कुन्दकुन्द, यतिवृषभ आदि के प्रयोगों में है; वही बीसवीं शताब्दी के प्रयोगों में भी देखा जा सकता है । पद, वाक्य, ध्वनि और अर्थ – इन चारों अंगों को विशेष अनुशासन में रख दिये जाने के उपरान्त भी शौरसेनी के जो रूप थे, वे अब भी हैं। जैसे पंचमी विभक्ति के प्रयोगों में आदो, आदु और सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'म्हि' प्रत्यय का प्रयोग तथा धातु क्रिया रूपों में हवदि, होदि आदि एवं थ ध्वनि का ध होना भी इसकी विशेषता है । जो प्राचीन सूत्र - ग्रन्थों में है, वही अब भी है । साहित्य-निबद्ध शौरसेनी प्राकृत 'छक्खंडागमसुत्त' में सूत्र रूप में है । साहित्य-स्वरूप में सूत्र का भी महत्त्वपूर्ण स्थान होता है । उसमें भी लय, यति एवं गति आदि विद्यमान रहती । उदाहरण के लिये एक सूत्र द्रष्टव्य है— 1 है “उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणा । ” – (4/2, पृ० 396) इस सूत्र को छोटा या बड़ा नहीं किया जा सकता । इसीतरह “उवकस्सा वा अणुक्कस्सा वा” इस सूत्र में 'वा' का प्रयोग दो बार हुआ है। एक वाक्य को जोड़नेवाला है और दूसरा भी को स्थान देता है । काव्यकला में दोनों ही पक्षों को स्थान दिया जाता ☐☐ 66 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000

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