Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 66
________________ कर्मक्षय की अपेक्षा 'जिन' शब्द का वर्गीकरण गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में नरका, तिर्यगा देवायु, अनन्तानुबन्धी क्रोध - मान-काया - लोभ, मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति —इन दश प्रकृतियों का क्षय रहता है। नवमें गुणस्थान में 36 प्रकृतियों का सत्त्वक्षय, दशम गुणस्थान में संज्वलनलोभ का क्षय, द्वादश गुणस्थान में निद्रा आदि 16 प्रकृतियों का क्षय, चतुर्दश गुणस्थान के उपान्त समय में 72 (असाता वेदनीय आदि) प्राकृतियों का क्षय, अन्त समय में सातावेदनीय आदि 13 प्रकृतियों का क्षय कर यह आत्मा परमसिद्ध जिनेन्द्र परमात्मा हो जाता है। इसप्रकार गुणस्थानों के क्रम से क्रमश: कर्मों पर विजय प्राप्त कर ज्ञानदर्शन सुख वीर्य आदि गुणों को विकसित करते हुए यह आत्मा एकदेशजिन मध्यमजिन, जिनेन्द्र और सर्वोत्कृष्ट जिनेश्वरपद को प्राप्त करता है। सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा 'जिन' आत्मा का वर्गीकरण चतुर्थ गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक आत्माओं के हीनाधिक में मति - श्रुत- अवधिज्ञान हो सकता है । मन:पर्यय ज्ञान 6वें से 12वें गुणस्थान तक हो सकता है । केवलज्ञान 13वें, 14वें गुणस्थानों में तथा सिद्ध भगवान् के होता है । सिद्धपरमात्मा में सादि - अनन्तकाल तक केवलज्ञान होता है। मतिज्ञान- - श्रुतज्ञान के अनन्तर भी केवलज्ञान हो सकता है । मति श्रुत- अवधिज्ञान तथा मति श्रुत-अवधि - मन:पर्यय के अनन्तर भी केवलज्ञान हो सकता है और केवलज्ञान सम्पूर्ण ज्ञानावरण कर्म के क्षय से होता है । इन गुणस्थानों में भी यथायोग्य - यथाक्रम से जिन - व्यवहार ज्ञातव्य है 1 - ( करणानुयोग दीपक, भाग 1, पृ० 73 ) “न सम्यक्त्वसमं किंचित्, त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । - श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व-समं नान्यत्तनूभृताम् । । ” – ( समन्तभद्राचार्य) “नरत्वेपि पशूयन्ते, मिथ्यात्वग्रस्तचेतनाः । पशुत्वेपि नरायन्ते, सम्यक्त्वव्यक्तचेतनाः । । - (पण्डितप्रवर आशाधर ) ☐☐ 64 धन की पवित्रता “शुद्धैर्धनैर्विवर्धन्ते सतामपि न सम्पदः । न हि स्वच्छाम्बुभिर्पूणाः कदाचिदपि सिन्धव: । ।” - (आचार्य गुणभद्र, आत्मानुशासनम्, 45 ) अर्थ:- जैसे निर्मल जल से नदी, तालाब, समुद्र आदि कभी भरने नहीं हैं; वे बारिश के मटमैले जल से पूर से ही भरते हैं; उसीप्रकार सज्जन भी शुद्ध धन से सम्पत्तिशाली नहीं बन पाते हैं, उनमें कुछ न कुछ अशुद्धि अवश्य होती है। ** प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000

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