________________
देह आदि नोकर्म से रहित, केवलज्ञानादि आठ गुणों से सम्पन्न आत्मा सिद्ध परमात्मा' होता है। वह सम्पूर्णगुण-युक्त निकल परमात्मा, उत्कृष्ट जिनेन्द्र, सम्पूर्णजिन और सर्वजिनेश्वर नाम से भी प्रसिद्ध है। इसप्रकार आत्मद्रव्य की अपेक्षा 'जिन'शब्द का विभाजन किया गया। विशुद्ध परिणामों की अपेक्षा 'जिन' का वर्गीकरण
यथायोग्य कर्मों के उपशम, क्षयोपशम एवं क्षय की अपेक्षा परिणाम-विशुद्धि के कारण असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होने से 'जिन' शब्द का वर्गीकरण इसप्रकार है
__ “सम्यग्दष्टिश्रावक-विरतानन्तवियोजक-दर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिना: क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा:।" – (तत्त्वार्थसूत्र, सूत्र 45)
“सम्मत्तुपुपत्तीये, सावयविरदे अणंतकम्मसे। दंसणमोहक्खवगे, कसायउवसामगे य उवसंते।। खवगे य खीणमोह, जिणेसुदव्वा असंखगुणिदकमा। तवविवरीया काला, संखेज्जगुणक्कमा होति ।।"
-(गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा 66-67) सारांश - (1) सातिशय, भद्रपरिणामी, सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि जीव के पूर्व में मिथ्यात्वदशा में जो कर्मों की निर्जरा (एकदेशक्षय) होती थी, उससे असंख्यातगुणी निर्जरा होती है तथा समय, पूर्व से संख्यातगुणा हीन होता है, यह विचित्र घटना है। (2) सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव के अन्तर्मुहूर्तकाल में जो कर्मों की निर्जरा होती है, उससे असंख्यातगुणी अधिक कर्मों की निर्जरा, चतुर्थगुणस्थानवर्ती शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव के होती है तथा समय संख्यातगुणित हीन व्यतीत होता है। इसीप्रकार (3) श्रावक (पंचम गुणस्थानवर्ती), (4) विरक्तमुनिराज (षष्ठगुणस्थानवर्ती), (5) अनन्तानुबन्धी का विसंयोजक जीव, (6) दर्शनमोहक्षपक, (7) कषायोपशमक जीव, (8-9-10 गुणस्थानवर्ती जीव), (8) उपशान्तकषायवाला जीव (11वां गुणस्थानी), (9) कषायक्षपक जीव (8-910वां गुणस्थानी जीव), (10) क्षीणमोह (12वां गुणस्थानी जीव), (11) सयोगकेवलीजिन (13वें गुणस्थानी), (12) समुद्घातगतकेवलीजिन, (13) अयोगीजिन (14वें गुणस्थानवर्तीजिन)। इन स्थानों में भी क्रमश: पूर्व से असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा अधिक होती है और पूर्व से अग्रिम स्थानों में समय संख्यातगुणिक हीन व्यतीत होता है। इससे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र का प्रभाव सिद्ध होता है, जिससे असंख्यातगुणे भावों की विशुद्धि वृद्धिंगत होती है और समय संख्यातगुणा हीन व्यतीत होता है । इसप्रकार गुणश्रेणी निर्जरा (एकदेश कर्मक्षय) के माध्यम से एकदेशजिन, मध्यमजिन, जिनेन्द्र और सर्वोत्कृष्ट जिनेन्द्र में वर्गीकरण होता है।
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000
00 63