Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 63
________________ (परमात्मा) समूह को नमस्कार किया गया है। जिन' शब्द की व्युत्पत्ति “कर्मारातीन् जयतीतिजिन:” अर्थात् रागद्वेष-मोह आदि कर्मशत्रुओं पर जो पूर्णत: विजय प्राप्त कर लेते हैं, उनको जैनदर्शन में जिन' कहा गया है। पण्डितप्रवर आशाधर-सम्मत्त जिन' की व्याख्या है “जाता जैनकुले पुरा जिनवृषाभ्यासानुभावाद् गुणैः।" कर्मशत्रून जयन्ति इति जिना:, ते देवता: येषां ते इति जैना:, तेषां कुलं तस्मिन् जैनकुले समुत्पन्ना:। -(सागार धर्मामृत, अ० 2, पद्य 20) सारांश :- जिन्होंने ज्ञानावरणादि कर्मशत्रुओं को जीतकर अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुखशक्ति-सम्यक्त्व आदि आठ अक्षय गुणों को प्राप्त कर लिया है, वे 'जिन' महात्मा जिन मानवों के देवता हैं, वे मानव जैन' संज्ञक हैं; उनकी सन्तान भी जैन'संज्ञक है। समन्तभद्राचार्य द्वारा मान्य जिन' शब्द की व्याख्या इसप्रकार है “श्रेयान् जिन: श्रेयसि वर्मनीमा:, श्रेय: प्रजा: शासजेयवाक्य: । जिन: सकल कषायेन्द्रियजयात् जिन: ।।" अर्थात् सम्पूर्ण कषाय तथा इन्द्रिय-भोगों पर विजय प्राप्त करने से जिन महात्माओं ने अक्षय ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य आदि गुणों को प्राप्त कर किया है; उन श्रेयांस जिनदेव · ने जनता को मुक्ति के मार्ग का उपदेश दिया। -(वृहत्स्वयंभूस्तोत्र, श्रेयांसस्तुति, पद्य 1) आचार्य श्री योगीन्द्रदेव की दृष्टि से आत्मा के भेद निम्नानुसार हैं "मूढु-वियक्खणु बंभु परु अप्पा तिविहु हवेइ। देहु जि अप्पा जो मुणइ, सो जणु मूदु हवेइ ।। -(परमात्मप्रकाश, दोहा 13) द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा आत्मा के कोई भेद नहीं, वह आत्मा एक शुद्ध अखण्ड नित्य ज्ञान-दर्शनादि स्वभावी है। परन्तु पर्यायार्थिनय की अपेक्षा कर्मसंयोग से आत्मा के तीन भेद होते हैं। (1) बहिरात्मा, (2) अन्तरात्मा, (3) परमात्मा। जो देह आदि बाह्य पदार्थों को और आत्मा का एकरूप श्रद्धान करता है, वह बहिरात्मा कदापि 'जिन' नहीं कहा जा सकता, वह मोक्षमार्गी नहीं है। जो भेदविज्ञानी, परमसमाधि में स्थित 24 परिग्रह से विहीन आत्मा है, वह अन्तरात्मा तीन प्रकार होता है। (1) उत्तम अन्तरात्मा, (2) मध्यम अन्तरात्मा, (3) जघन्य अन्तरात्मा। जघन्य अन्तरात्मा चतुर्थ गुणस्थानवर्ती, भेदविज्ञानी अविरति सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गी ‘एकदेशजिन' कहे जाते हैं। मध्यम अन्तरात्मा के भी तीन भेद होते हैं- (1) जघन्य मध्यम-अन्तरात्मा - पंचमगुण स्थानवर्ती एकदेशव्रती श्रावक सम्यग्दृष्टि जघन्य मध्यम-अन्तरात्मा कहे जाते हैं। ये भी एकदेशजिन हैं। षष्ठ गुणस्थानवर्ती, 24 परिग्रहविहीन महाव्रती सम्यकदृष्टि मध्यम मध्यम-अन्तरात्मा कहे जाते हैं। सप्तमगुणस्थान के सातिशय भाग से लेकर द्वादश प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर 2000 0061

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