Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 70
________________ अध्ययन से देवनागरी लिपि का ही बोध होता है । भाषा के रूप “अक्खरगदा अणक्खरगदा" भाषा अक्षरगत भी है और अनक्षरगत है । और "सोर्दिदियस्स विसयो” श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है, जो मूलतः लिखित, सांकेतिक और उच्चरित इन तीन रूपों के लिये हुये है । इसके अंग प्रत्यंग में पद, वाक्य, वर्ण आदि का जो स्वरूप विद्यमान है, उसके कारण भाषा के अनेक रूप भी हैं। अनेक प्रकार की बोलियाँ हैं । एवं अनेक भाषायें भी हैं। भाषा का वैशिष्ट्य व्याकरण और साहित्य से ही आता है । अत: जो कुछ कहा गया या पूर्व में बोला जा चुका है, उसी का व्यवहारिक रूप कई तरह से अपना स्थान बना लेता है । जिसे प्रचलित भाषा, स्थानीय भाषा, प्रान्तीय भाषा, राजभाषा, राष्ट्रीय भाषा, अन्तर्राष्ट्रीय भाषा एवं साहित्यिक भाषा इत्यादि । प्राचीनकाल में कई प्रकार के परिष्कृत रूप सामने आये । कुछ शिष्ट और कुछ देशीकरण के कारण प्रतिष्ठित भी हुए । ऋग्वेद, अथर्ववेद, सामवेद और यजुर्वेद -इन चारों वेदों की भाषा को इनके साहित्यिक स्वरूप के आधार पर 'छान्दस्' कहा गया । वैदिक युग में जो प्रचलित रूप थे या जन-जन में बोले जाने वाले प्रयोग जैसे ही साहित्यिक रूप को प्राप्त होते हैं, वैसे ही उनका स्थान भी निर्धारित हो जाता है । जो वचन भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध के रूप में प्रचलित थे, वे 'आर्ष' के स्वरूप को प्राप्त हुए, और आर्षवचन का जैसे-जैसे अध्ययन किया गया, वैसे-वैसे उनके नामकरण का भी निर्धारण हुआ। शूरसेन की प्रमुखता से 'शौरसेनी', मगध की विशेषता से 'मागधी' आदि नामकरण क्षेत्रीयकरण के कारण प्रसिद्ध हुए । यही कालान्तर में स्थान - अपेक्षा . और साहित्य-दृष्टि से पृथक्-पृथक् विभाषाओं के स्वरूप को प्राप्त हुये । विभाषा विविध प्रकार के भाषण अर्थात् कथन को 'विभाषा' कहते हैं । विभाषा, प्ररूपणा, निरूपणा और व्याख्यान - ये सब एकार्थवाचक नाम हैं । विविहा भासा विहासा परूवणा णिरूवणा वक्खार्णमिदि एयट्ठो । – (षट्0 1/6/5 ) अधिकांश रूप में भाषाओं के शब्दों के वैषम्य और साम्य के कारण किसी भाषा को पृथक् कर पाना अत्यंत कठिन है । और उसमें भी आर्यभाषाओं के विकास के परिप्रेक्ष्य में अत्यधिक कठिन हो जाता है । क्योंकि आर्यभाषाओं के विकास में प्राकृत और संस्कृत दोनों ही हैं। जबकि कुछ भाषावैज्ञानिकों की यह मान्यता है कि वैदिक युग की भाषा के अतिरिक्त शौरसेनी, मागधी, महाराष्ट्री, पैशाची, चूलिका एवं अन्य द्रविण परिवार की भाषायें एवं विभाषायें हैं । विभाषाओं का या उपभाषाओं का स्वरूप वैदिक काल से ही प्रचलित हो गया था। जिसे देश्य भाषाओं के प्रभाव के कारण तीन विभाषाओं में विभक्त किया गया ☐☐ 68 प्राकृतविद्या�जुलाई-सितम्बर 2000

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