Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 72
________________ परिणति है, अर्थात् जिस समय में जो भाषा बोली जाती है, उस समय में वही वाणी क्षेत्रीयता के कारण भाषा के नामकरण को प्राप्त हो जाती है। और उसी समय अन्य भाषा-विभाषा या अभाषा जानी जाती है। भाषा-वर्गणा का यही संकेत है। श्रुतज्ञान के अध्ययन से भी यह संकेत होता है कि एक-एक अक्षर की वृद्धि से बढ़ता हुआ पद समास-संघात को प्राप्त हो जाता है। अक्षर और अनाक्षर दोनों ही अपने-अपने स्थान को सुरक्षित करते हैं। जितने अक्षर हैं, उतने ही श्रुतज्ञान हैं; क्योंकि एक-एक अक्षर से एक-एक श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है। छक्खंडागमसुत्त' में इनके विकल्पों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया और यह भी कथन किया गया है कि एक-एक अक्षर से एक-एक श्रुत की जिस रूप में उत्पत्ति होती है, वे वर्गाक्षर 25 हैं, अंतस्थ चार, और उष्मा अक्षर चार तथा 33 व्यंजन है। स्वर, इस्व, दीर्घ और प्लुत के भेद से सत्ताईस है। प्राकृत में भी इनका सद्भाव है। सभी अक्षर 64 होते हैं, कहा है “तेत्तीस वंजणाई सत्तावीसं हवंति सव्वसरा। चत्तारि अजोगवहा एवं चउसट्टि वण्णाओ।" –(षट् खण्ड 5/13, पृ० 248) अत: यह निश्चित ही कहा जा सकता है कि लोकभाषा के अनेक स्रोत थे, जो परिमार्जित और परिष्कृत होकर भारतीय संस्कृति के मूल निवासियों की भाषा बनी आर्यभाषा के नाम से विख्यात वैदिक युग की छान्दस्' और आर्ष युग की 'शौरसेनी', का अपना वैशिष्ट्य है, जिनमें जनभाषा के समान्तर रूप भी हैं। तथा जिनमें परिनिष्ठित, उदीच्या, विभाषा, मध्यदेशीय विभाषा तथा पूर्वी विभाषा के अनेक रूप विद्यमान हैं। शौरसेनी आदि भाषाओं से ही विभाषायें एवं उपभाषायें विकसित हुई हैं। 27 स्वरवर्ण - अ, आ, आ३; इ, ई, ई३; उ, ऊ, ऊ३; ऋ, ऋ, ऋ३; लु, लु, लु३; ऍ, ए, ए३; ओं, ओ, ओ३; ऐं, ऐ, ए३; औं, औ, औ३। (इनमें : का चिह्न) हस्वत्व का, तथा '३' का चिह्न प्लुतत्व का सूचक है) - क्, ख, ग, घ, ङ् । च्, छ्, ज्, झ, ञ् । ट, ठ, ड्, द, ण् । त्, थ्, द्, ध्, न् । प्, फ, ब, भ, म्। य, र, ल, व् । श्, ष, स्, ह। – अं (:), अ: (:): क प् । 33 व्यंजनवर्ण | 4 अयोगवाह वर्ण 0070 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000

Loading...

Page Navigation
1 ... 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116