Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 64
________________ गुणस्थान-पर्यन्त क्रमश: कर्मों का क्षय करनेवाले दिगम्बर परमध्यानी मुनि हीनाधिक परिणामों के कारण उत्तम अन्तरात्मा जिन कहे जाते हैं। क्योंकि आत्मा भी क्रमश: कर्मों का क्षय करती है। स्पष्ट वर्णन यह है कि चतुर्थ गुणस्थान से लेकर द्वादश गुणस्थान तक जीव तरतमभावों की अपेक्षा क्रमश: 'एकदेशजिन' कहे जाते हैं। "सप्तप्रकृतिक्षयं कृत्वेकदेशजिना: सदृष्टय: श्रावकादय:।" परमात्मा दो प्रकार वाले हैं (1) निकल परमात्मा, (2) सकल परमात्मा। ज्ञानावरणादि घाति-कर्मों के विजेता अनन्त ज्ञान-दर्शन आदि गुणचतुष्टय से शोभित, अष्टप्रातिहार्य से विभूषित, समवसरण में मोक्षमार्ग के प्रणेता 46 अतिशयों से परिशोभित महात्मा ‘सकल परमात्मा' कहे जाते हैं। इनको विशेष पूजातिशय होने के कारण 'अर्हन्त' कहते हैं। परमौदारिक चरमोत्तम शरीर होने के कारण जीवन्मुक्त' कहते हैं एवं 'सकल परमात्मा' भी कहते हैं। चतुर्थगुणस्थान से द्वादश गुणस्थान-पर्यन्त 'जिन' आत्माओं में इन्द्र (श्रेष्ठ) होने के कारण जिनेन्द्र' या जिनकल्प' कहे जाते हैं। “सकल निकल परमातम द्वैविध, तिनमें घाति-निवारी। श्री अरिहन्त सकल परमातम, लोकालोक-निहारी।।" -(कविवर पं० दौलतराम जी) “सकलज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्दरस लीन। सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरि-रज-रहस-विहीन ।।" -(कविवर पं० दौलतराम जी) ये अरिहन्त चार घातिकर्म रूप शत्रुओं के विजेता होने से 'अर्धनारीश्वर' प्रसिद्ध हैं . अर्थात् अर्ध=चार घाति कर्मरूप शत्रु जिनके नहीं हैं, (अर्थात् आधे अरि नहीं हैं) ऐसे ईश्वर को 'अर्धनारीश्वर' कहते हैं। 'सहस्रनामस्तोत्र' में कहा है “अर्धं ते नारयो यस्माद् अर्धनारीश्वरो स्मृत:। त्वामन्धकान्तकं प्राहु: मोहान्धासुरमर्दनात् ।।" –(जिनसेनाचार्य - सहस्रनामपीठिका, पद्य 8) अर्ध अरय:यस्य न सन्ति इति अर्धनारिः, स चासौ ईश्वरश्च इति अर्धनारीश्वर:= अर्धजिन: । मोहान्धासुरमर्दनात्-अन्धकान्तक: अर्हदेव: । प्राकृते-अरिहंत देवो। द्वितीय परमात्मा-सिद्धपरमात्मा सर्वोत्कृष्ट सिद्ध परमात्मा के विषय में परमात्मप्रकाश में कथित है— “अप्पा लद्धउ णाणमउ, कम्म-विमुक्के जेण। मेंल्लिवि सयलु वि दब्बु, परु सो परु मुणहि मणेण ।।” -(योगीन्द्रदेव, परमात्मप्रकाश, पद्य 15) सारांश - ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों से तथा राग-द्वेष-मोह आदि भावकर्मों से विहीन, 0062 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000

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