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भरतमुनि ने भी कहा है
"विज्ञेयं प्राकृतं पाठ्यं नानावस्थान्तरात्मकम् ।" – (नाट्यशास्त्र, 18/2) महाज्ञानी आद्य शंकराचार्य ने भी प्राकृत एवं संस्कृत दोनों भाषाओं को समस्त शास्त्रों की शिरोमणि बताया है— “वाच: प्राकृत-संस्कृता: श्रुतिशिरो।" -(ध्वन्याष्टक, 8) प्राकृतभाषा के भेद
विद्वानों एवं भाषाविदों ने स्वीकार किया है कि मूल में प्राकृतभाषा का ढाँचा एक ही था। बाद में क्षेत्रीय उच्चारण-भेदों एवं शब्द-सम्पदा के कारण उसमें भेद आते गये। यद्यपि उत्तरवर्ती काल में प्राकृत में अनेकों भेद-प्रभेदों ने जन्म लिया, किन्तु मूल में इसके तीन ही रूप विद्वानों ने माने हैं
1.शौरसेनी, 2. मागधी, 3. पैशाची।
इनमें भी मुख्य ढाँचा 'शौरसेनी' का ही था, 'मागधी' और 'पैशाची' तो मात्र क्षेत्रीय उच्चारण-भेद थे। इनका वैशिष्ट्य निम्नानुसार है1. शौरसेनी प्राकृत ___ इतिहासकारों के अनुसार मगघदेश में अफगानिस्तान से लेकर उड़ीसा तक, तथा काश्मीर से कर्नाटक तक का क्षेत्र समाहित था। इसका साहित्यिक रूप अधिक व्यवस्थित होने के कारण प्राचीन वैयाकरणों ने सर्वप्रथम इसी का व्याकरण लिखा। और फिर इसी को आधार मानकर अन्य प्राकृतों में जो अंतर थे, मात्र उन्हीं की विवेचना की तथा 'शषं शौरसेनीवत्' कहकर आगे बढ़ गये। शौरसेनी प्राकृत की प्रमुख विशेषतायें निम्नानुसार है— 1.ऋ> इ, यथा— ऋद्धि > इड्ढि
ऋ > अ, यथा— अग्रहीत > अगहिद ऋ> ओ, यथा— मृषा > मोस
ऋ> ऊ, यथा- पृथ्वी > पुढवी 2. त >द, यथा— चेति > चेदि, संयता > संजदा। लेकिन संयुक्त' व्यंजनवाले शब्द के 'त' को 'द' नहीं हुआ है। यथा— संयुक्तो > संजुत्तो।
3.ध > ध, यथा- तथा > तधा, अयथा > अजधा। 4.क > ग, यथा- वेदकं > वेदगं, एकांतेन > एगंतेण।
5. दो स्वरों के मध्यवर्ती क् ग् च् ज् त् द् और प् का लोप प्राय: नहीं हुआ है। यथा- श्रुतकेवली > सुदकेवली, गति > गदि।
6. व्यंजनलोप होने पर अवशिष्ट अ, आ के स्थान पर य श्रुति' भी मिलती है। यथा— तीर्थंकरों > तित्थयरो, वचन > वयण । 7. इसमें मात्र दन्त्य सकार का ही प्रयोग होता है, जो प्राकृत की मूलभूत विशेषता है।
यथा— शीलं > सीलं।
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000
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