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सबको प्रेम में लपेट लेनेवाली, प्रत्येक सजीव या निर्जीव, वस्तु या प्राणी के प्रति अपने लगाव का अनवरत विस्तार है। क्रोध, वैमनस्य या प्रतिशोध के भाव इस अहिंसा का हिस्सा नहीं हो सकते।
प्रेम और अनुराग की यह भाषा आज के युवाओं से बेहतर कौन समझेगा? अगर अहिंसा को विश्व अभियान बनना है, तो इस अभियान का नेतृत्व युवाओं को थामना होगा। पर्यावरण की रक्षा के लिए, शांति के उत्थान के लिए उन्होंने धर्म, साम्प्रदायिकता और राष्ट्रीयता की क्षुद्र सीमाओं से बाहर निकलकर काम किया है, काम करने की अपनी भावना का परिचय दिया है। आज का प्रत्येक युवक एक विश्व-नागरिक है। पुरुष हो या स्त्री, वह प्रेम की उस शाश्वत भाषा को समझता है। प्रेम, जो केवल अहिंसा से ही साध्य है। मैं विश्व के युवाओं को नमस्कार करती हूँ, मैं अहिंसा को नमन करती हूँ, मैं उस शाश्वत, विश्वजनीन, नैसर्गिक प्रेम में विश्वास करती हूँ और उसके निरंतर विस्तार के लिए स्वयं को समर्पित करती हूँ।
अनुमोदना का सुफल राजा श्रेयांस ने पूर्व-भव में मुनिराज को आहारदान दिया था। उस आहारदान की विधि को अत्यन्त भक्ति एवं आदरभावपूर्वक नेवला, सिंह, शूकर एवं बन्दर - इन चार प्राणियों ने देखा और अनुमोदना की थी। उसी पुण्य के प्रताप से ये चारों प्राणी अगले भव में चक्रवर्ती भरत, बाहुबलि, वृषभसेन आदि के रूप में उत्पन्न हुए। सत्पात्रदान एवं उसकी अनुमोदना की महिमा बताते हुए आचार्य वीरसेन स्वामी लिखते हैं“न च,पात्रदानेनऽनुमोदिन: सम्यग्दृष्टयो भवन्ति।"
-(धवला, सत्प्ररूपणा 1/1/85) अर्थ:- (यद्यपि वह तिर्यंच है), फिर भी पात्रदान की अनुमोदना तो कर ही सकता है, इससे रहित वह नहीं होता है। इसलिए ऐसी अनुमोदना करनेवाले तिर्यंच भी सम्यग्दृष्टि होते हैं। उपर्युक्त घटनाक्रम को कवि नयनानन्द जी ने निम्नानुसार छंदोबद्ध किया है
"नवल सूकर सिंह मरकट कर भजन श्रद्धान। - भये वृषभसेन आदि जगतगुरु पहुँच गये निर्वाण ।।" इसी तथ्य की पुष्टि निम्नलिखित वाक्य से भी होती है.. “दानं पारम्पर्येण मोक्षकरणं, साक्षात्पुण्यहेतुः।"
-(चारित्रसार, पृष्ठ 28) अर्थ:- दान परम्परा से मोक्ष का कारण है एवं तत्काल पुण्य को बढ़ाने वाला साधन है।
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000
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