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3. उत्तम आर्जव :- मोतूण कुडिलभावं, णिम्मल-हिदयेण चरदि जो समणो।
अज्जवधम्मं तदियो, तस्स दु संभवदि णियमेण ।। अर्थ:- जो कुटिलता (छल-कपट) के भावों को छोड़कर निर्मल-हृदय से आचरण करता है, उसके लिए नियम से तृतीय 'आर्जव धर्म' उत्पन्न होता है। 4. उत्तम शौच :- कंखा-भावणिवित्तिं, किच्चा पूरग्गभावणा-जुत्तो।
जो वददि परममुणी तस्स दु धम्मो हवे सोचं।। अर्थ:- भोगों की आकांक्षा आदि विकारी (अशुचि) भावों की निवृत्ति करके जो परम मुनि वैराग्यभावना से युक्त होता है, उसके शौचधर्म' होता है। 5. उत्तम सत्य :- परसंतावय-कारणवयणं मोत्तूण स-पर-हिदवयणं ।
जो वददि भिक्खु तइयो, तस्स दु धम्मो हवे सच्चं ।। अर्थ:- दूसरों को पीड़ा (संताप) पहुँचाने वाले वचनों को छोड़कर जो भिक्षु स्व-पर-हितकारी वचनों को बोलता है, उसके 'सत्यधर्म' होता है। 6. उत्तम संयम :- वद-समिदि-पालणाए, दंडच्चाएण इंदियजएण।
परिणममाणस्स पुणो, संजमधम्मो हवे णियमा।। अर्थ:- व्रत और समिति का पालन करने से, मन-वचन-कायरूपी तीनों दंडों की चंचलता का त्याग करने स इन्द्रियों को जीतने से (जो व्यक्ति आत्मरूप) परिणमित होता है, उसे नियम से 'संयमधर्म' होता है। 7. उत्तम तप :- विसय-कसाय-विणिग्गहभावं कादूण झाणसिज्झीए।
जो भावदि अप्पाणं, तस्स तवं होदि णियमेण ।। अर्थ:- पंचेन्द्रिय के विषयों एवं क्रोधादि कषायों का निग्रह करके ध्यान की सिद्धि के लिए जो आत्मा की भावना करता है, उसे नियम से 'तपधर्म' होता है। 8. उत्तम त्याग :- णिव्वेगतियं भावदि, मोहं चइदूण सव्वदव्वेसु।
जो तस्स हवेच्चागो, इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं।। अर्थ:- जो समस्त परपदार्थों में मोहभाव छोड़कर निर्वेदभाव (वैराग्य) की भावना करता है, उसे त्यागधर्म होता है —ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। 9. उत्तम आकिंचन्य:- होदूण य णिस्संगो, णियभावं णिग्गिहित्तु सुह-दुहदं ।
णिद्ददेण दु वट्टदि, अणयारो तस्स किंचण्हं ।। अर्थ:- जो समस्त संग (अंतरंग एवं बहिरंग परिग्रहों) से रहित होकर सांसारिक सुख एवं दु:ख का निग्रह करके निर्द्वन्द्व रूप में आत्मस्वभाव में वर्तता (रहता) है, उसके 'आकिंचन्य धर्म' होता है। 10. उत्तम ब्रह्मचर्य:- सव्वंग पेच्छंतो, इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भावम् ।
__ सो बम्हचेरभावं, सक्कदि खलु दुद्धरं धरदि।। अर्थ:- जो स्त्रियों के समस्त अंगों को देखता हुआ भी उनमें (विषय-वासनाजन्य)
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000