Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 45
________________ एक अखण्ड है, वही धर्म है' —ऐसा आचार्य शुभचन्द्र ने भी ज्ञानार्णव' (2/10) में स्पष्ट किया है। तत्त्वार्थसूत्र (918) में आचार्य उमास्वामी ने भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए कहा है कि-"उत्तमक्षमा-मार्दवार्जवशौच-सत्य-संयम-तपस्त्यागाकिंचन्य-ब्रह्मचर्याणि धर्म:।" इसमें उत्तमक्षमा आदि के अन्त में 'ब्रह्मचर्याणि' बहुवचनान्त प्रयोग किया है, तथा 'धर्म:' इस पद में एकवचन प्रयोग किया है। इससे सुस्पष्ट है कि धर्म के लक्षण उत्तमक्षमा आदि लक्षण दस हैं, किन्तु इनसे लक्षित धर्म दसप्रकार का नहीं है, वह तो एक इन उत्तमक्षमा, उत्तममार्दव आदि दशलक्षणों में प्रत्येक पद के साथ जुड़ा हुआ उत्तम' पद विशेष अभिप्राय से प्रयुक्त हुआ है। इसका औचित्य एवं सार्थकता बतलाते हुए आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि लिखते हैं___“दृष्ट-प्रयोजन-परिवर्जनार्थमुत्तमविशेषणम्।" – (सर्वार्थसिद्धि, 9/6) अर्थात् दृष्ट (लौकिक) प्रयोजनों के निवारण के लिए 'क्षमा' आदि के साथ उत्तम' विशेषण जोड़ा गया है। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए चारित्रसार' में कहा गया है। - “उत्तमग्रहणं ख्याति-पूजादिनिवृत्त्यर्थम्" – (चा०सा०, 58) अर्थात् ख्याति एवं पूजा आदि की भावनाओं की निवृत्ति के लिए क्षमा आदि के साथ उत्तम' पद का प्रयोग किया गया है। अभिप्राय यह है कि यदि कोई व्यक्ति ख्याति, लाभ, पूजा आदि की चाह से क्षमा आदि भावों को धारण करता है; तो उसके वे क्षमा आदि भाव 'धर्म' नहीं कहलायेंगे। इस दसलक्षणमयी धर्म के बारे में आचार्यप्रवर कुन्दकुन्द ने 'बारस-अणुवेक्खा' ग्रंथ में जो स्पष्टीकरण दिया गया है, वह संक्षेपत: निम्नानुसार वर्णित है। 1. उत्तमक्षमा :- कोहुप्पत्तिस्स पुणो, बहिरंगं जदि हवेदि सक्खादं । ण कुणदि किंचि वि कोहं, तस्स खमा होदि धम्मो त्ति।। अर्थ:- क्रोध की उत्पत्ति के बहिरंग (अपशब्द, तिरस्कार आदि) कितने ही कारण समक्ष उपस्थित हों, फिर भी जो किंचित् मात्र भी क्रोध नहीं करता है, उसके 'क्षमाधर्म' होता है। 2. उत्तम मार्दव :-कुल-रूव-जादि-बुद्धिसु, तव-सुद-सीलेसु गारवं किंचि । जो ण वि कुवदि समणो, मद्दवधम्म हवे तस्स ।। अर्थ:- कुल, रूप, जाति, ज्ञान, तप, शास्त्राभ्यास, सदाचार आदि के निमित्त से यदि कोई श्रमण किंचित् मात्र भी अभिमान (घमण्ड) नहीं करता है, उसे 'मार्दवधर्म' प्रकट होता है। प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000 00 43

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