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(ग) “धम्मो दयाविसुद्धो।" – (बोधपाहुड, 25) अर्थ:— 'धर्म' दया से विशुद्ध परिणाम है।
(छ) “अयं जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिंसालक्षण: सत्याधिष्ठितो विनयमूल: क्षमाबलो ब्रह्मचर्यगुप्त: उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतावलम्बन: ।।" (सर्वार्थसिद्धि, 977)
अर्थ:- जिनेन्द्रदेव ने जो अहिंसा लक्षणवाला धर्म कहा है, सत्य उसका आधार है, विनय उसका मूल (जड़) है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य उसकी बाड़ है, वह उपशमप्रधान है, नियति-लक्षण है एवं अपरिग्रहता उसका आलम्बन है।
(ङ) “गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परमो धर्मस्तेनैव सम्यक्त्वपूर्वेण परम्परया मोक्षं लभते।"
(परमात्मप्रकाश टीका, पद्य 2/111) ___ अर्थ:- गृहस्थों के लिए आहारदान आदि ही परमधर्म है। सम्यक्त्वपूर्वक किये गये इसी धर्म से उन्हें परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
(च) आगम में निष्णात एवं वैराग्यमय आचरण वाले साधु को साक्षात् 'धर्म' कहा गया है।
–(प्रवचनसार, 1/92) (छ) धम्मो मंगलमुक्किठें, अहिंसा संजमो तवो।।
देवा वि तस्स पणमंति, जस्स धम्मे सया मणो।। अर्थ:- अहिंसा, संयम एवं तपोमय धर्म का उत्कृष्ट मंगलस्वरूप कहा गया है। ऐसा धर्म जिसके मन में सदैव रहता है, उसे देवता भी प्रणाम करते हैं। धर्म की परिपूर्ण परिभाषा
धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो।
रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणो धम्मो।।"- (कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 478)
अर्थ:- वस्तु के स्वभाव को 'धर्म' कहते हैं, उत्तम क्षमादि दशलक्षणवाला 'धर्म' है, सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय 'धर्म' है तथा जीवों की रक्षा करना भी 'धर्म' है। धर्म के भेद
धर्म के सामान्यत: मनिधर्म' एवं 'श्रावकधर्म' नामों से दो भेद कहे गये हैं। इन्हें ही 'अनगारधर्म' एवं 'सागारधर्म' भी नाम दिया जाता है। ___ 'मूलाराधना' (गाo 557) में श्रुत-धर्म, अस्तिकाय-धर्म एवं चारित्र-धर्म के भेद से धर्म के तीन प्रकार बतलाये गये हैं।
युगप्रधान आचार्य कुन्दकुन्द ने 'बारस-अणुवैक्खा' ग्रंथ में धर्म का स्वरूप उत्तमक्षमादि दशलक्षणमय प्रतिपादित किया है
“उत्तम-खम-मद्दवज्जव-सच्च-सउच्चं च संजमं चेव ।
तव-तागकिंचिण्हं बम्हा इति दसविहं होदि।।" – (गाथा 70) वस्तुत: दश भेदोंवाला धर्म नहीं है, अपितु 'उत्तमक्षमा आदि दशलक्षणों से युक्त जो
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000