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बाई जी अपने पुत्र वर्णी जी व सभी लोगों को यही शिक्षा देती रही, अविवेक का कार्य अंत में सुखावह नहीं होता। जिस कार्य को करने से व्याकुलता हो, वह कार्य नहीं करना चाहिए। पठन और पाठन से यदि हम हिताहित नहीं पहिचान सके, तो उस पढ़ने का कोई लाभ नहीं है। ____ असली भारत (ग्रामीण क्षेत्र) में ज्ञान की ज्योति जगाने का जो श्रेय उन्हें है, वह किसी विश्वविद्यालय के संस्थापकों को नहीं मिल सकता; क्योंकि माँ चिरोंजाबाई का अपने पुत्र वर्णी जी के साथ मिलकर किया गया पुरुषार्थ नदी, नालों और कूप के समान गाँव-गाँव को जीवन दे रहा है। उनका यह कार्य जलती मशाल है, जिससे एक करोड़ से अधिक लड़के-लड़कियों को ज्ञान का आलोक मिला व योग्य विद्वान् बनकर भारत के कौने-कौने में धर्मदर्शन, न्याय व संस्कृति आदि का ज्ञान बाँट रहे हैं। यदि यह सब अनुप्राणित हो सका - तो सब उस ग्रामीण, अल्पशिक्षित विधवा महिला के उनके धर्मपुत्र वर्णी जी के प्रयास का ही फल है।
विधि का विधान और भाग्य की रेखा
"अघटित-घटितं घटयति, सघटितं च जर्जरीकरते। विधि दैव तानि घटयति, यानि नरो नैव चिन्तयति ।।"
-(95) अर्थ:- विधि सुघटित घटनाओं को विघटित करता है और अघटित घटनाओं का. निर्माण करता है। भाग्य के कारण ऐसी भी घटनायें प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती हैं, जिनकी मनुष्य ने कभी कल्पना भी नहीं की होती है।
उदाहरणस्वरूप भगवान् राम के जीवन को ही ले सकते हैं। प्रात:काल जिनके राज्याभिषेक की पूरी तैयारी थी, किसी ने सोचा भी नहीं था कि उनकी उस दिन की शाम घनघोर जंगल में वनवासियों की तरह बीतेगी। किसी कवि ने कहा भी है
"प्रात: भवामि वसुधादपि चक्रवर्तीः ।
सोऽहं ब्रजामि विपिने जटिल-तपस्वी।।" अर्थात् मैं प्रात:काल इस धरती का स्वामी होने वाला था अर्थात् मेरा राज्याभिषेक होने जा रहा था और मैं इस भयंकर जंगल में कठोर तपस्वी होने जा रहा हूँ।
अत: विधि का विधान अलग चलता है और मनुष्य अपने भविष्य की कल्पना के ताने-बाने अलग ही बुनता रहता है। अपनी उधेड़बुन में वह अपने भविष्य का निर्माता बनकर प्रयत्नशील रहता है तथा भाग्यरेखा अपने अलग ही खेल दिखाकर सब कुछ उलट-पुलट कर देती है।
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000