Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 40
________________ हे पावन पर्यूषण आओ ! -अनूपचन्द न्यायतीर्थ भय का वातावरण बना है, धर्मकार्य कैसे हो बोलो। ज्ञान-ध्यान- तप नहीं सुहाता, पर्वराज अब आंखें खोलो । पूजापाठ नहीं कर पाते, आकर मन को समझा जाओ, उग्रवाद, हे पावन पर्यूषण ! आओ ।। 1 ।। आतंकवाद अब पैर जमाये खड़ा हुआ है। लूटपाट अन्यायी चोरी करने में अड़ा हुआ है ।। स्वाध्याय कैसे कर पावे, आकर कोई मार्ग दिखाओ, हे पावन पर्यूषण ! आओ ।। 2 ।। उत्तम क्षमा धरें हम कैसे, बात-बात में क्रोध सताता । गुरुजन विनय नहीं हो पाती, सिर पर मान चढ़ा मदमाता ।। क्षमाशील विनयी बन जावे ऐसी कोई राह दिखाओ, हे पावन पर्यूषण ! आओ ।। 3 ।। आर्जव धर्म नहीं निभ पाता, मन में मायाचार भरा है । उत्तम शौच गया गंगा जी, अशुचि-भाव ने मन जकड़ा है ।। कपट मिटे शुचि जगे भावना, ऐसा सुन्दर पाठ पढ़ाओ, हे पावन पर्यूषण ! आओ ।। 4 । । सत्य धर्म छुप गया गुफा में, उत्तम सत्य नहीं दिख पाता । संयम कैसे पले बताओ, मन-मर्कट वश में नहिं आता ।। सत्य और संयममय जीवन, होवे ऐसे भाव जगाओ, OO 38 हे पावन पर्यूषण ! आओ ।। 5 ।। तप की महिमा भूल गये हैं, तप केवल अब रहा दिखावा । त्याग प्रदर्शनमात्र रह गया, दाता के मन भरा छलावा । । तप अरु त्यागमयी हो जीवन, ऐसे अब उपदेश सुनाओ, हे पावन पर्यूषण ! आओ ।। 6 ।। प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000

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