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उपस्थिति का सूचक है। अपने निवास के लिये बनवाये राजप्रासाद का 'महाविजय' नामकरण उसकी अखण्ड विजय यात्राओं की सार्थकता को सूचित करता है । इसीप्रकार उपसंहार में 'पसंतो सुगंतो अणुभवंतो कलाणानि का प्रयोग एक विशिष्ट क्रम को सूचित करता है। अधिसंख्यक पद इसीप्रकार सहेतुक एवं सोद्देश्य प्रयुक्त हुये हैं । 7. तथ्यात्मकत्व
खारवेल ने अपने पौरुष एवं गौरवपूर्ण राज्य शासन का जो वर्णन किया है, वह तो तथ्यपूर्ण है ही; किंतु कहीं भी वैयक्तिक प्रतिष्ठा के आकर्षण में आकर उसने तथ्यों को बदला नहीं है। जैसेकि राज्याभिषेक के पंचमवर्ष में जब वह 'तिनसुलिया' के रास्ते एक नहर को कलिंग नगरी में लाने की बात करता है; वहाँ पर वह यह स्पष्ट कर देता है कि यह नहर मूलत: उसने नहीं खुदवाई थी, अपितु इसका निर्माण कार्य खारवेल से भी तीन सौ वर्ष पूर्व नंद राजा ने कराया था । इसीप्रकार मगधराज 'बसहतिमित्त' का नामोल्लेख एवं उससे छीनकर कलिंग - जिन की प्रतिमा को ससम्मान कलिंग नगरी लाना खारवेल शिलालेख की तथ्यपरकता की प्रामाणिकता को सिद्ध करता है । भले ही खारवेल ने अनेकों महत्त्वपूर्ण कार्यों का संपादन किया था; फिर भी जैन आगमों के संरक्षण के लिये बुलाई गई गोष्ठी में मूल श्रेय वह अपनी रानी सिन्धुला को इसलिये देता है कि वह उसकी प्रेरणास्रोत थी ।
इससे स्पष्ट है कि सूत्रात्मकता के समस्त आधार - बिंदुओं का खारवेल-अभिलेख में अनुपालन होने से खारवेल अभिलेख सूत्रात्मक लेखन - शैली का एक आदर्श निदर्शन प्रमाणित होता है ।
बौद्ध मूलसंघ
[ महात्मा बुद्ध-निर्वाण के 236 वर्ष अशोक के समय तक बौद्धधर्म भिन्न-भिन्न अट्ठारह सम्प्रदायों में विभक्त हो चुका था ]
महासंगीति आयोजित करनेवाले बौद्ध भिक्षुओं ने बुद्ध के शासन को विपरीत बना डाला। उन्होंने 'मूलसंघ' में भेद पैदा करके एक दूसरा ही संघ खड़ा कर दिया। उन्होंने धर्म के यथार्थ आशय को भेद डाला। उन्होंने दूसरे ही सूत्रों का संग्रह किया, दूसरे ही अर्थ किये । पाँच निकायों के यथार्थ आशय और धर्म - प्ररूपणा को उन्होंने भेद डाला ।
" महासंगीतिका भिक्खू विलोमं अकंसु सासनं । भिंदित्वा मूलसंघं अज्ञ अकंसु संघं । । अञ्ञत्य संगहित्तं सुत्तं अञ्ञत्थ अकरिंसु । अत्थं धम्मं च भिंदिंसु ये निकायेसु पंचसु ।।”
प्राकृतविद्या + जुलाई-सितम्बर 2000
- ( बौद्धग्रंथ, दीपवंस, 5,32-38) **
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