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उदात्त चित्र आँकने में निपुण है। स्त्री-सौन्दर्य का रमणीय चित्र ऋषभदेव की माता मरुदेवी, जो रूप, सौन्दर्य, कान्ति, शोभा, बुद्धि, द्युति और विभूति में इन्द्राणी के समान थीं, की शारीरिक संरचना (द्र०, द्वादश पर्व, श्लोक संख्या 12-58) के रूप में प्रस्तुत हुआ है; तो पुरुष-सौन्दर्य का भव्य चित्र राजा वज्रसेन के पुत्र वज्रनाभि की शारीरिक संरचना (द्र० एकादश पर्व, श्लोक संख्या 15-36) के रूप में आया है। अवश्य ही इन दोनों प्रकार के सौन्दर्योद्भावन में महाकवि ने अपनी काव्यप्रौढ़ि का प्रकर्ष प्रस्तुत करने में विस्मयकारी कवित्व शक्ति का परिचय दिया है। इसीप्रकार महाकवि ने कोमल-बिम्ब के समानान्तर परुष-बिम्बों का भी अतिशय उदात्त सौन्दर्योद्भावन किया है। इस सन्दर्भ में दशम पर्व में वर्णित नरक के विभिन्न क्रूर और घृणित दृश्य उदाहरणीय हैं। विशेषकर नारकियों को कढ़ाई में खौलाकर रस बनाने या उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर कोल्हू में पेरने आदि के दृश्यों में वीभत्स-बिम्बों का रोमांचकारी विधान हुआ है। नरक के दृश्यों में महाकवि जिनसेन द्वारा प्रस्तुत परुष और वीभत्व बिम्बों की द्वितीयता नहीं है।
सौन्दर्य के तत्त्वों में अन्यतम वाग्वैदग्ध्य की दृष्टि से महाकवि द्वारा प्रस्तुत वज्रनाभि के तपोवर्णन-प्रसंग में 'प्रायोवेशन' शब्द का तथा मरुदेवी के शारीरिक चित्रण में वामासे' शब्द के निरुक्ति-वैविध्य का चमत्कार द्रष्टव्य है। इन दोनों की निरुक्ति-प्रक्रिया में काव्य और व्याकरण का समेकित अर्थ-सौन्दर्य अतिशय रोचक होने के साथ ही ततोऽधिक रंजनकारी भी है। यह पदगत वाग्वैदग्ध्य है। 'प्रायोपवेशन' की निरुक्ति :
“तत: कालात्यये धीमान् श्रीप्रभाद्रौ समुन्नते। प्रायोपवेशनं कृत्वा शरीराहारमत्यजत् ।। रत्नत्रयमयीं शय्यामधिशय्य तपोनिधिः । प्रायेणोपविशत्यस्मिन्नित्यन्वर्थमापिपत् ।। प्रायेणोपगमो यस्मिन् रत्नत्रितयगोचरः। प्रायेणोपगमो यस्मिन् दुरितारिकदम्बकान् ।। प्रायेणास्माज्जनस्थानादपसृत्य गमोऽटवेः। प्रायोपगमनं तज्ज्ञैर्निरुक्तं श्रमणोत्तमैः ।।"
–(पर्व 11, श्लोक संख्या 94-97) अर्थात् आयु के अन्त में बुद्धिमान् वज्रनाभि ने श्रीप्रभ नामक ऊँचे पर्वत पर प्रयोपवेशन धारण कर शरीर और आहार का ममत्व त्याग दिया। चूंकि इस संन्यास में तपस्वी साधु रत्नत्रय की शय्या पर उपविष्ट होता है, इसलिए इसका प्रायोपवेशन' नाम सार्थक है। इस संन्यास में प्राय: रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) की प्राप्ति होती है, इसलिए इसे 'प्रायेणोपगम' भी कहते हैं। अथवा इस संन्यास के धारण करने पर प्राय:
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000
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