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बिहारी ने इस भाव को अपने दोहे में और अधिक स्पष्ट एंव काव्यमय ढंग से कहा है- “तंत्रीनाद, कवित्तरस, सरस राग, रति-रंग।
अनबूड़े बूड़े, तरे जे बूड़े सब अंग।।" 'अनबूड़े अरसिक' न तो जीवन में महिलाओं के हृदयगत भाव को और न काव्य में गाथाओं के मर्मगत रस को पा सकते हैं। वे तो निपट अभागे और पुण्यभ्रष्ट लोग हैं। - (वज्जालग्गं, 3/5)। इसलिये अलंकारों से सजी, सामुद्रिक लक्षणों से युक्त और परस्पर अनुराग से रसिकहृदया रूप सुंदरी प्रेमिकाओं की तरह रमणीय सालंकार, सुलक्षणा और विविध राग-रागिनियों से गाई जाने वाली गाथायें जब हृदय में नहीं उतरतीं, तब पाठक या श्रोता प्रेमियों का मन खिन्न हो जाता है। -(वज्जालग्गं, 3/2)। एक गाथा कवि ने स्वयं गाहा (गाथा) को ही चेतावनी देते हुए कहा है कि “अरसिक गँवार लोगों से तुम दूर-दूर ही रहना, जो तुम्हें भली-भाँति गा नहीं सकते। नहीं तो वे तुम्हें अपने दाँतों से चबा-चबाकर तुम्हें पीड़ा पहुँचाते हुए उसी तरह तोड़कर लघु बना देंगे (तुम्हारी गुरुता नष्ट कर देंगे), जैसे गँवई लोग ईख के डंडे को कठोर दाँतों से काट-काट कर छोटा कर देते है।” गाथा-गायन एक विशिष्ट कला है। जो पाठक या नायक इस छंद की मात्राओं के साथ उनकी यति-गति एवं स्वर-लय की पद्धति को नहीं जानता, वह इसे प्रस्तुत करेगा, तो गाहा श्रुति-रमणीय नहीं होगी— “छंद अयाणमाणेहि जा किया सा प होइ रमणिज्जा।" – (वज्जालग्गं 3/10)। जयवल्लभसूरि ने 'वज्जालग्गं' में एक गाथा संकलित की है, जिसमें वर्णन किया गया है कि गँवार लोग द्वारा ऊल-जलूल ढंग से बोले जाने से गाहा बेचारी उसी तरह 'लुचपलुंच' होकर रुदन करने लगती है; जिस तरह अनाड़ी ग्वाले (मन्द दोग्धा) के हाथों से बेढंगे तरीके से थन कुचले-मसले जाने पर बेचारी दुधारू गैया कष्ट से रँभारती है
"गाहा रुवई वराई सिक्खिज्जंती गंवार-लोएहिं।
कीरइ लंचपहुंचा जह गाई मंद-दोहेहिं ।।" – (वही, 3/7) प्राकृत मुक्तक-काव्य में लोकानुभूतियाँ अभिव्यक्त हुई हैं, जन-जन के सुख-दुःख मुखरित हुए हैं, सरस ढंग से कामतत्त्व का चिन्तन हुआ है, राग-परिवाहिनी गीति की गाथा-गगरियाँ छलकाई गई हैं; इसलिए महाकवि हाल ने 'गाहासत्तसई' में लिखा कि इस अमृतमय प्राकृतकाव्य को पढ़ने का एक सलीका है। जो लोग इसे नहीं जानते, उन्हें कामतत्त्व का चिन्तन करते हुए शर्म क्यों नहीं आती? गाथायें महाविदग्ध जनों की गोष्ठी में ही विश्वास होकर पढ़ी जानी चाहिये; क्योंकि वे ही गाथागायक या गाहा-पाठक की प्राकृत-कविता के परमार्थ को समझ सकते हैं। गाहा छंद में निबद्ध शृंगाररसपूर्ण मुक्तकों को पढ़े बिना न तो अर्धाक्षर-भणितों का, न सविलास मुग्ध-हसितों का और न ही अर्धाक्षि-प्रेक्षितों का आनंद प्राप्त किया जा सकता है, यह बात निश्चित है। गाँवों में जन्मी,
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000
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