Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 32
________________ थे और गाथिक (गै+ठन्) गीति में कथातत्त्व का संयोग करके गाते थे, उन्हें कथागायक भी कह सकते हैं। गुरुवर्य शंकराचार्य अद्वैतवाद के प्रवर्तक थे। इस दर्शन में ब्रह्म की माया-सृष्टि को मकड़ी (लूता) की उपमा से समझाया जाता है। संभवत: इसीलिये भगवत्पाद ने मकड़ी की तरह गीति में भी आठ पद रचकर उसे 'अष्टपदी' बना दिया संस्कृत गीति-परम्परा में यह अष्टपदी लोकप्रिय होती गई, जिसका सर्वश्रेष्ठ निदर्शन उत्कल कवि जयदेव की सरस रचना गीत-गोविन्दम्' है, जिसका अनुवर्तन संस्कृत गीतिकाव्य में काफी हुआ। पुरी के जगन्नाथ मंदिर से यह अष्टपदी देश भर में भक्तिपदों की अलग पहचान बन गई। काव्यक्षेत्र में 'गाथा' ने जब गीति-छंदों का रूप ग्रहण किया और प्राकृतभाषा में गाथामुक्तकों की कोटिश उन्मुक्त रचनाओं के संग्रह हॉलरचित 'गाहासत्तसई' का अनुकरण संस्कृत की आर्याओं ने किया, तो वही परंपरा ब्रज-अवधी और मैथिली के काव्यों में दोहा', 'सोरठा', बरवै आदि छंदों का रूप लेकर आगे बढ़ी, जिससे ‘सत्तसई' साहित्य समृद्ध होता गया। महाकवि बाणभट्ट ने हर्षचरित' के प्रास्ताविक भाग में 'गाहाकोश' का काव्यात्मक उल्लेख करते हुए लिखा है "अविनाशिनमग्राम्यमकरोत्सातवाहनः। विशुद्धजातिभि: कोशं रत्नैरिव सुभाषितैः ।।" 'गाथाकोश' के प्राकृत-सुभाषितों को रत्नों की उपमा देते हुए बाणभट्ट ने विशुद्ध 'जाति' छंद कहा है। 'गाहा' छंद की यही विशेषता है कि वह लोक-छंद 'जाति' था, किन्तु उसमें 'अग्राम्यता' थी, ग्राम्यत्व दोष नहीं था। प्राकृत-गाथाओं के रचयिता लोककवि रहे होंगे, ग्रामवासी भी हो सकते हैं; किन्तु उनकी गाथाओं में गँवारपन नहीं है, इसीलिये वह कोश सदा 'अविनाशी' बना रहा है। ___गाहा' में निबद्ध प्राकृतकाव्य को तो 'अमिअं' कहा ही गया है, किन्तु प्राकृत-मुक्तकों में 'गाहा' की प्रशस्ति भी अनेक प्रकार से गाई गई है। 'गाहा' वरकामिनी के समान उन्मुक्त हृदया (सच्छंदिया) रूपवती, अलकारभूषिता और सरसभाषिणी होती है। वह तभी रस प्रदान करती है, जब उसका सुरीति से अवगाहन या गायन किया जाये “सच्छंदिया सरूवा सालंकारा सरस-उल्लावा। वरकामिणव्व गाहा गाहिज्जंती रसं देइ ।।" – (वज्जा० 3) यहाँ 'गाहिज्जंती' शब्द में श्लेष है— गाह्यमाना एवं गीयमाना। कालिदास की वाणी की एक प्रशस्ति में भी ऐसा ही कहा गया है— 'प्रियाङ्कपालीव विमर्दहृद्या।। ___ अन्यत्र कहा गया है कि गाहा का रस, महिलाओं के विभ्रम और कवियों के उल्लाप किसका हृदय नहीं हर लेते— “कस्स ण हरंति हिययं ।" (वज्जालग्गं, 3/5)। जो लोक गाथाओं के गीतों के प्रौढ़ महिलाओं और तन्त्रीनादों के रस को नहीं जानते, उनके लिये उनका अज्ञान ही सबसे बड़ा दंड है। -(वज्जा, 3/9) 00 30 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000

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