Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 34
________________ पी और बढ़ी नैसर्गिक रूपवती और सहज रागमयी अल्हड़ ग्रामबाला सी 'गाहा' ने आर्या नागरिकाओं के प्रेमी संस्कृत - पंडितों का भी शताब्दियों से मन मोह रखा है— तभी तो ध्वनि काव्य के श्रेष्ठ उदाहरण के रूप में वे गाहा को ही निहारते रहे हैं और 'गाहा' भी अपने अल्हड़पन में कहती रही है- "गाहारुहम्मि गामे वसामि णअरट्ठि ण आणामि । णाअरिआणं पणो हरेमि जा होमि सा होमि । । " मैं गाँवों में जन्मी, रहती हूँ गाँवों में, हाल नगर का क्या है? यह मैं नहीं जानती । मैं जो हूँ, सो हूँ । पर नागरियों के पतियों का मन हर लेती हूँ, बस मैं तो यही मानती ।। सन्दर्भग्रंथ सूची 1. द्विधा विभक्तेन च वाङ्मयेन सरस्वती तन्मिथुनं नुनाव । संस्कारपूतेन वरं वरेण्यं वधुं सुखग्राह्यनिबन्धनेन ।। - (कुमारसंभवमहाकाव्य) 2. कर्पूरमंजरी, राजशेखर ( 1/8 ) । 3. वज्जालग्गं, जयवल्लभसूरि (3/18 ) । 4. गउडवहो, वाक्पतिराज (1 / 92 ) । 5. वज्जालग्गं, 3/4 1 6. गाहासत्तसई, 1। 7. आर्यासप्तशती, 52 । मिथ्यादृष्टि बनाम नास्तिकता 'मिथ्यादृष्टिर्नास्तिकता ।' – ( अमरकोश, 5/1/4 पृष्ठ 30 ) “ मिथ्यादृष्टिः नास्तिकता द्वे परलोकाभावादिज्ञानस्य । नास्ति परलोके इति मतिर्यस्य तस्य भावो नास्तिकता । । ” अर्थः– मिथ्यादृष्टि एवं नास्तिकता – ये दो एक सिक्के के ही दो पहलू हैं। ( क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीव परलोक आदि की चिंता किये बिना विषय- कषाय में प्रवृत्त होकर कर्म बांधता रहता है) । तथा परलोक आदि नहीं हैं —ऐसी बुद्धि या भाव का नाम ही नास्तिकता है । इसीलिए परलोक के दुःखों की परवाह किये बिना कर्मबन्धन में निरत मिथ्यादृष्टि को 'नास्तिक' कहा गया है। 00 32 ** प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000

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