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या प्राकृत गीतियों में इसी छंद और प्राकृतभाषा का प्रचलन रहा है । ध्रुवागीतियों की भाषा के लिए भरतमुनि ने यही नियम - विधान किया है—
'भाषा तु शौरसेनी स्यात् । ” – ( नाट्यशास्त्र, 32/440 )
भरतमुनि द्वारा प्रणीत नाट्यशास्त्र के बत्तीसवें अध्याय में 'ध्रुवागीतियों' के विधान एवं प्रकारों का वर्णन किया गया है। भरतमुनि का कथन है कि नाट्य-प्रयोग में पाँच प्रकार की ध्रुवागीतियों का गान किया जाता है— प्रावेशिकी, आक्षेपिकी, प्रासादिकी, अन्तरा तथा नैष्क्रामिकी__
" प्रवेशाक्षेप - निष्क्राम- प्रासादिक - मथान्तरम् ।” — (32/317) इन ध्रुवाओं में गान - हेतु नारदादि ऋषि-मुनियों द्वारा अनेकविध विचार किया गया था, जिनमें गाथा - गीति भी सम्मिलित । यथा—
"या ऋच: पाणिका गाथा सप्तरूपांगमेव च ।
सप्तरूपप्रमाणं च तद्ध्रुवेत्यभिसंज्ञितम । । ” – (32/2)
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अर्थात् ऋचायें, पाणिका, गाथा और सप्तगीत – इन सभी को 'ध्रुवा' कहा जाता है गेयपदों में 'लघु' और 'गुरु' अक्षरों का जो प्रयोग किया जाता है, उन्हें भरत ने 'गाथांश’ नाम दिया है।
“गुरुर्गाथांशकौ यस्याः सर्वपादेषु दृश्यते ।
श्रीरिति ख्यातनामासौ कीर्तिता प्रथमा ध्रुवा ।।” – ( 32/49)
इन ध्रुवागीतियों के नानावृत्तों से उत्पन्न प्रकारों को नाट्यशास्त्र में 'जाति' कहा गया है। " एतास्तु जातयः प्रोक्ता नानावृत्त - समुद्भवाः ।” – (32/313)
इन जाति नामक गाथा-प्रकारों (या गीतिभेदों) का प्रयोग वहाँ किया जाना चाहिये, जहाँ वाक्यों में संवाद बोलना अभीष्ट या उचित न हो; क्योंकि गीतों से युक्त वाक्यार्थों से रसपाक में सहज परिपक्वता आ जाती है।
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" यानि वाक्यैस्तु न ब्रूयात्तानि गीतैरुदाहरेत् ।
गीतैरेव हि वाक्यार्थे: रसपाको बलाश्रयः ।।” – ( 32/357-58)
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भरतमुनि ने पाँचों प्रकार की ध्रुवागीतियों के लिये केवल शौरसेनी प्राकृतभाषा का नियम ही नहीं बनाया, अपितु उन्होंने उसके लिए जो मात्रिक छंदों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, वे भी इसी प्राकृत में निबद्ध हैं और लोकगीत-प - परम्परा से ग्रहण किये गये हैं । किन्तु ब्रह्मा द्वारा निर्मित पंचम एंव सर्ववेदसाररूप सार्ववर्णिक 'नाट्यवेद' का नाम चरितार्थ करने के लिए तथा वैदिक-युगीन गाथा - परम्परा से जोड़ने के लिए ध्रुवा-गाथाओं को सातों वैदिक छंदों के आधार पर नया जाति-स्वरूप प्रदान किया है । जैसे— (i) गायत्री जाति
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"मेह रवाउलं रुद्धगह कदंबं ।
पसमिद दिवाकरं रुददि विय णहदलं । । "
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प्राकृतविद्या+जुलाई-सितम्बर 2000