Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 26
________________ “ वाणी प्राकृत - समुचितरसा, बलेनैव संस्कृतं नीता । निम्नानुरूपनीरा कलिन्दकन्येव गगनतलम् । ।”” उपर्युक्त सभी कथन प्रमाणित करते हैं कि प्राकृतकाव्य में जनभाषा की नैसर्गिकता नव-नव अर्थों की सम्पदा, सूक्तियों की कथन - भंगिमा और सरसता के गुणों के कारण सचमुच 'अमृतमय' है; किन्तु प्राकृतभाषा की मुक्तक - मुक्तामणियों की शाश्वत आभा की चर्चा तब तक अधूरी है, जब तक उस सूत्ररूप छन्द का वर्णन न किया जाये, जिसमें इन्हें पिरोया गया है। वह छंद है— 'गाहा' या 'गाथा' । प्राकृत के मुक्तक और 'गाहा' वस्तुत: 'कहियत भिन्न न भिन्न, गिरा - अरथ जल-वीचि सम ।' गाहा और प्राकृत- मुक्तक का साथ चोली-दामन का साथ है, दोनों परस्पर सम्पृक्त हैं, अभिन्न हैं । इसलिये यह लेख गाहा-चर्चा के लिए, गाथा की गाथा के लिए समर्पित है, जो वैदिक संहिताओं के मंत्रयुग से समस्त जैनागम-साहित्य, प्राकृत मुक्तक काव्य और उसके अनुकरण पर लिखित संस्कृत-हिन्दी की सतसई-परम्परा में नाम और रूप बदलकर भी 'स्थिता व्याप्य विश्वम्' रही है। 1 'गाथा' शब्द मूलत: वैदिक है । यह उतना ही पुरातन है, जितने पुरातन वेद-मंत्र हैं 'गै' धातु में 'थन्' प्रत्यय जोड़ने पर 'गाथ' शब्द बनता है, उसीका (टाप् - युक्त) स्त्रीलिंग रूप है 'गाथा' | गाथा का अर्थ है गीति । 'गाथा' और 'गातु' दोनों समानार्थक हैं, किन्तु ये मंत्रगान से भिन्न लोकगीति के रूप में गाये जाते थे । ऋचा का त्रिगुणकाल परिमित स्वर संयोगयुक्त गान 'साम' कहलाता था—' 'त्र्यचं साम ।' जैमिनीय सूत्र में गीतियों को 'साम' कहा गया है— 'गीतिषु सामाख्या ।' सामवेद से संगीत का जन्म हुआ है, भरतमुनि ने 'नाट्यवेद' की रचना के समय साम - मंत्रों से ही गीत - तत्त्व ग्रहण किया था—' “सामभ्यो गीतमेव” । शब्द और स्वर का, साहित्य और संगीत का, मंत्रपद और गीत (गान) का संगम होने के कारण 'सामवेद' को सर्वोत्तम वेद माना गया । 'श्रीमद्भगवद् गीता' के विभूतियोग में भगवान् श्रीकृष्ण का कथन है कि वेदानां सामवेदोऽस्मि' (10/22)। किन्तु यह एक सुविज्ञात तथ्य है कि सामगान केवल ऋग्वैदिक छंदों का किया जाता था, जिनकी संख्या सात थी । चौबीस अक्षरात्मक 'गायत्री छंद' में चार अक्षर जोड़ने पर 'उष्णिक्'; इसीप्रकार चार-चार अक्षर बढ़ाते जाने से क्रमश: अनुष्टुप् बृहत्ती, पंक्ति, त्रिष्टुप् और जगती छंद बनते थे । इनमें से गायत्री और उष्णिक् त्रिपाद हैं तथा अनुष्टुप् बृहती, त्रिष्टुप् और जगती चतुष्पाद हैं तथा 'पंक्ति' पंचपादात्मक वर्णित छंद है। 'गाथा' छंद वैदिक युग में प्रचलित मात्रिक छंद था । वे मंत्रों में भी यह गीति अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है; किन्तु मंत्र-भाग न होने से यह पंक्ति-बाह्य ही रहा। देवस्तुतिपरक मंत्रों से पृथक् मनुष्यों की दान-स्तुतियों एवं अन्य विषयों में रैभी, नाराशंसी' तथा गाथाओं का प्रयोग किया जाता था। यद्यपि रैभी' और 'नाराशंसी' की तुलना में अपनी गीतिमयता के कारण 1 00 24 प्राकृतविद्या + जुलाई-सितम्बर 2000

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