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प्राकृत का लोकप्रिय छंद: गाहा
-डॉ० हरिराम आचार्य
शौरसेनी प्राकृत का दार्शनिक एवं आध्यात्मिक वाङ्मय का जो अधिकांश भाग छंदोबद्ध मिलता है तथा लौकिक मुक्तक-साहित्य में भी जो आदर्श गेय-पदों के प्राचीन ग्रंथ मिलते हैं, उनमें छंदशास्त्रीय दृष्टि से 'गाथा' या 'गाहा' छंद ही अपने विविध रूपों में प्रयुक्त मिलते हैं। सामान्यत: प्राकृत का छंद मानी जानेवाली यह 'गाथा' मूलत: शौरसेनी प्राकृत की ही दुहिता है तथा इसकी परम्परा एवं प्रयोगों की क्या विशिष्ट पृष्ठभूमि रही है —इन सब बिन्दुओं पर विशद प्रकाश डालने वाला यह गवेषणापूर्व आलेख जिज्ञासु पाठकों को सुस्वादु स्वस्थ पाथेय प्रस्तुत कर सकेगा।
-सम्पादक
“पाइय-कव्वस्स णमो, पाइयकव्वं च णिम्मिअं जेण।
ताहं चिय पणमामो, पढिऊण य जे वि याणंति ।।" – (वज्जालग्गं, 3/13) अर्थ:- प्राकृतकाव्य को नमन है, उसके रचनाकार को नमन है, और उन्हें भी नमन है, जो प्राकृतकाव्य को पढ़ना जानते हैं।
अत्यन्त प्राचीनकाल से भारतभूमि वाङ्मय द्विधा विभक्त रहा है— संस्कृत और प्राकृत के रूप में।' संस्कृतभाषा संस्कारपूता' है, प्राकृतभाषा 'सुखग्राह्यनिबन्धना' है। एक परुषबन्धमयी पुरुषभाषा है, दूसरी सुकुमार-बन्धमयी महिलारूपिणी वाणी है। संस्कृत देवभारती है, तो प्राकृत जनभाषा है; जिसमें निबद्ध काव्य देशी शब्दावली, मधुर अक्षर, ललित छंद और स्फुट अर्थ के कारण सहज पठनीय बन जाता है।' 'गउडवहो' के रचयिता वाक्पतिराज भी अभिनव अर्थ, सहज रचना-बंध तथा मृदु शब्द-सम्पदा के कारण प्राकृत-काव्य को श्रेष्ठ मानते हैं। प्राकृत-काव्य के प्रति अतिशय अनुरागवश प्राकृत मुक्ता-मणियों के संकलयिता जयवल्लभसूरि तो यहाँ तक कह गये कि ललित-मधुराक्षरपूर्ण, युवतिजनवल्लभ, शृंगाररसपूर्ण प्राकृतकाव्य के रहते कौन भला संस्कृत काव्य पढ़ेगा? ____ 'गाहासत्तसई' के अमर प्रणेता महाकवि हाल ने प्रथम शती ई० में ही यह घोषणा कर दी थी कि 'अमिअं पाइयकव्वं' (प्राकृत-काव्य अमृत है); किन्तु उस पर 12वीं शताब्दी के संस्कृत कवि, 'आर्यासप्तशती' के सुकृती रचनाकार गोवर्धनाचार्य ने यह कहकर तो जैसे मोहर लगा दी कि
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000
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