Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 24
________________ कर्मरूपी शत्रुओं का अपगम या विनाश हो जाता है, इसलिए इसे 'प्रायेणापगम' भी कहते हैं । इस संन्यास में प्राय: संसारी जीवों के रहने योग्य ग्राम, नगर आदि से अलग होकर वन में जाकर रहना पड़ता है, अत: इसके विशेषज्ञ श्रमण मुनियों ने इसे 'प्रायोपगमन' कहा है। 'वामोरु' की निरुक्ति : “वामोरुरिति या रूढिस्तां स्वसात् कर्त्तुमन्यथा । वामवृती कृतावूरु मन्येऽन्यस्त्रीजयेऽमुया ।।” - ( पर्व 12, श्लोक संख्या 27 ) अर्थात महाकवि कहते हैं— 'मैं ऐसा मानता हूँ कि अभी तक संसार में मनोहर ऊरुवाली स्त्रियों के अर्थ में 'वामोरु' शब्द रूढ़ है । उसे मरुदेवी ने अन्य प्रकार से आत्मसात् कर लिया था । उन्होंने अपने दोनों ऊरुओं को अन्य स्त्रियों को पराजित करने के लिए वामवृत्तिवाला अर्थात् शत्रुवत् आचरण करनेवाला बना लिया था ।' कोश के अनुसार 'वाम' शब्द का अर्थ सुन्दर भी होता है और दुष्ट या शत्रु भी । मरुदेवी ने, जो सुन्दर ऊरुवाली स्त्री थी, अपने उन ऊरुओं से अन्य स्त्रियों के ऊरुओं की सुन्दरता को परास्त कर दिया था । इस सन्दर्भ में निर्मित अभंग - श्लेष का बिम्ब- सौन्दर्य अतिशय चित्ताह्लादक और मनोमोहक है । बिम्ब-विधान और सौन्दर्य - निरूपण के सन्दर्भ में अतिशय प्रतिभाप्रौढ़ एवं वाग्विदग्ध महाकवि आचार्य जिनसेन की काव्यभाषा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उनकी काव्यभाषा सह ही बिम्ब-विधायक और सौन्दर्योद्भावक है । उनकी काव्य-साधना मूलत: भाषा की साधना का ही उदात्ततम रूप है। कोई भी कृति अपनी भाषा की उदात्तता के आधार पर ही चिरायुषी होती है। इस दृष्टि से महाकवि जिनसेन का आदिपुराण एक कालजयी काव्यकृति है। आदिपुराण की काव्यभाषा यदि अनन्त सागर के विस्तार की तरह है, तो उससे उद्भूत बिम्ब और सौन्दर्य के रम्य चित्र ललित लहरों की भाँति उल्लासकारी हैं । 'वाक्' और 'अर्थ' की समान प्रतिपत्ति की दृष्टि से आचार्य जिनसेन की भाषा की अपनी विलक्षणता है। कवि की भाषागत अभिव्यक्ति का लालित्य ही उसकी कविता का सौन्दर्य होता है और उस लालित्य का तात्त्विक विवेचन-विश्लेषण ही सौन्दर्यशास्त्र का विषय है, जिसमें काव्य के रचना-पक्ष के साथ ही उसके प्रभाव - पक्ष का भी विवेचन - विश्लेषण निहित होता है। कहना न होगा कि कविर्मनीषी आचार्य जिनसेन का आदिपुराण रचना - पक्ष और प्रभाव-पक्ष, अर्थात् कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से सौन्दर्यशास्त्रियों के लिए अध्येतव्य है। कुल मिलाकर महाकविकृत इस सौन्दर्य - गर्भ महाकाव्य का समग्र बिम्ब-विधान उनकी सहजानुभूति की उदात्तता का भाषिक रूपायन है, जो इन्द्रिय-बोध की भूमि से अतीन्द्रिय सौन्दर्य-बोध की सीमा में जाकर निस्सीम बन गया है। उनका समग्र आत्मिक कलाT- चिन्तन अन्तत: आध्यात्मिक चिन्तन के धरातल पर प्रतिष्ठित हो गया है। 0 22 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर 2000

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