________________
काव्यभाषा में व्याकरण का चमत्कार तो है ही, काव्यशास्त्रीय वैभव की पराकाष्ठा भी है; जिसमें सामाजिक चिन्तन और लोकचेतना का भी समानान्तर विन्यास दृष्टिगत होता है ।
महाकवि ने आदिपुराण के छब्बीसवें पर्व ( श्लोक संख्या 128 से 150 ) में चक्रवर्ती भरत महाराज के दिग्विजय के वर्णन क्रम में गंगा नदी की विराट् अवतारणा की है । इसमें महाकवि ने गंगा के प्रवाह के साथ भरत महाराज की कीर्ति के प्रवाह का साम्य प्रदर्शित किया है । इस नदी के वर्णन की काव्यभाषा में वाग्वैदग्ध्य तो है ही, मनोरम बिम्बों की भी भरमार है, साथ ही सौन्दर्य के तत्त्वों का भी मनभावन उद्भावन हुआ है।
सौन्दर्य— विकसित कला-चैतन्य से समन्वित आदिपुराण न केवल काव्यशास्त्र, अपितु सौन्दर्यशास्त्र के अध्ययन की दृष्टि से भी प्रभूत सामग्री प्रस्तुत करती है । काव्य-सौन्दर्य के विधायक मूलतत्त्वों में पद- लालित्य या पदशय्या की चारुता, अभिव्यक्ति की वक्रता, वचोभंगी या वाग्वैदग्ध्य का चमत्कार, भावों की विच्छित्ति या भंगिमा, अलंकारों की शोभा, रस का परिपाक, रमणीय कल्पना, हृदयहारी बिम्ब, रम्य - रुचित प्रतीक आदि प्रमुख हैं । कहना न होगा कि इस महापुराण में सौन्दर्य-विधान के इन समस्त तत्त्वों का विनियोग हुआ है।
कलाचेता आचार्य जिनसेन ने अपने इस महाकाव्य में समग्र पात्र - पात्रियों और उनके कार्य-व्यापारों का सौन्दर्य-भूयिष्ठ बिम्बात्मक रूप देने का श्लाघ्य प्रयत्न किया है। समकालीन भौगोलिक स्थिति, राजनीति, सामाजिक चेतना एवं अर्थव्यवस्था के साथ ही लोक-मर्यादा, वेश-भूषा, आभूषण - परिच्छेद, संगीत - वाद्य, अस्त्र-शस्त्र, खान-पान, आचारव्यवहार, अनुशासन-प्रशासन आदि सांस्कृतिक उपकरणों एवं शब्दशक्ति, रस, रीति, गुण, छन्द, अलंकार आदि साहित्यिक साधनों का अपने इस महाकाव्य में उन्होंने यथाप्रसंग समीचीनता से विनिवेश किया है; फलत: भारतीय समाज के सम्पूर्ण इतिहास और समस्त संस्कृति के मनोरम तात्त्विक रूपों का एकत्र समाहार सुलभ हुआ है। भारतीय कला के स्वरूप के सांगोपांग निरूपण के लिए महाकवि जिनसेन के प्रस्तुत काव्य - साहित्य से बिम्ब-विधायक सौन्दर्य-सिक्त भावों और रमणीयार्थ के बोधक शब्दों अर्थात् उत्कृष्ट वागर्थ का आदोहन केवल हिन्दी - साहित्य ही नहीं, अपितु समस्त भारतीय साहित्य के लिए अतिशय समृद्धिकारक है।
आदिपुराण जैसे कामधुक् महाकाव्य से कला का मार्मिक ज्ञान और साहित्यिक अध्ययन – दोनों की सारस्वत तृषा बखूबी मिटायी जा सकती है; क्योंकि इस काव्यग्रन्थ में इतिहास और कल्पना के अतिरिक्त काव्य और कला -- . दोनों के योजक रस-तत्त्व की समानरूप से उपलब्धि होती है । आचार्य जिनसेन ने वैभव - मण्डित राजकुलाचार एवं समृद्ध लोकजीवन की उमंग से उद्भूत काव्य, साहित्य और कला के सौन्दर्यमूलक तत्त्वों की एक साथ अवतारणा की है। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत महाकाव्य की रचना - प्रक्रिया में श्रृंगार से शान्त की ओर प्रस्थिति उन आचार्य जैन कवियों की चिन्तनगत विशेषता की
प्राकृतविद्या← जुलाई-सितम्बर '2000
0019