Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 19
________________ उपहार-स्वरूप निर्मित नवीन मेघ से उपन्यस्त किया गया है, जिससे उपमामूलक परम रमणीय चाक्षुष बिम्ब का मनोहारी दर्शन सुलभ हुआ है । पुनः महाकाव्य से मन्दिर के सादृश्य में भी श्लेषगर्भ और उपमामूलक चाक्षुष बिम्ब की छटा दर्शनीय है; क्योंकि महाकाव्य में भी सद्वृत्त, यानी पिंगलशास्त्रोक्त समस्त सुन्दर छन्दों की आयोजना रहती है, चित्रकाव्यात्मक (मुरजबन्ध, खङ्गबन्ध, पद्मबन्ध आदि ) श्लोकों की प्रचुरता रहती है और फिर रमणीयार्थ— प्रतिपादक शब्दों की भी आवर्जक योजना रहती है; इसप्रकार उक्त जिनमन्दिर महाकाव्य जैसा प्रतीत होता था । महाकवि जिनसेनकृत नख - शिख - वर्णन में तो विविध बिम्बों का मनमोहक समाहार उपन्यस्त हुआ है। इस क्रम में 'महावत्सकावती' देश के राजा सुदृष्टि के पुत्र सुविधि के नख - शिख ( द्र० दशम पर्व ) या फिर ऋषभदेव स्वामी की पत्नियों - सुनन्दा तथा यशस्वती के नख-शिख के वर्णन ( द्र० पञ्चदश पर्व) विशेषरूप से उदाहरणीय हैं । इसीप्रकार महाकवि-कृत विजयार्ध - पर्वत के वर्णन में भी वैविध्यपूर्ण मनोहारी बिम्बों का विधान हुआ है। गरजते मेघों से आच्छादित इस पर्वत की मेखला के चित्र में जहाँ श्रावक बिम्ब का रूप-विधान है, तो इस पर्वत के वनों में भ्रमराभिलीन पुष्पित लताओं से फैलते सौरभ में विमोहक घ्राण-बिम्ब का उपन्यास हुआ है ( द्र० अष्टादश पर्व ) । उक्त पर्वत की नीलमणिमय भूमि में प्रतिबिम्बित भ्रमणशील विद्याधरियों के मुख- पद्म पर्वत-भूमि में उगे कमलों जैसे लगते थे । या फिर पर्वत की स्फटिकमणिमय वेदिकाओं पर भ्रमण करती विद्याधरियों के पैरों में लगे लाल महावर के चिह्नों से ऐसा लगता था, जैसे लाल कमलों से उन वेदिकाओं की पूजा की गई हो ( द्र० तत्रैव, श्लोक संख्या 158-59)। इस वर्णन में महाकवि का सूक्ष्म वर्ण-परिज्ञान या रंग-बोध देखते ही बनता है। रंगबोध की इस सूक्ष्मता से यथा प्रस्तुत रूपवती सुकुमारी विद्याधरियों के चाक्षुस बिम्ब में ऐन्द्रियता की उपस्थिति के साथ ही अभिव्यक्ति में विलक्षण विदग्धता या व्यंजक- वक्रता गई है। ज्ञातव्य है कि महाकवि की यह रंगचेतना पूरे महाकाव्य में कल्पना और सौन्दर्य के स्तर पर यथाप्रसंग बिम्बित हुई है। इसीप्रकार इस ‘महापुराण' के त्रयोविंश पर्व में वर्णित 'गन्धकुटी' के नाम की अपनी अन्वर्थता है; क्योंकि कुबेर द्वारा निर्मित यह गन्धकुटी ऐसी पुष्पमालाओं से अलंकृत थी, जिसकी गन्ध से अन्धे होकर करोड़ों-करोड़ भ्रमण उन पर बैठे गुंजार कर रहे थे । उस गन्धकुटी में सुवर्ण-सिंहासन सजा था, जिसकी सतह या तलभाग से चार अंगुल ऊपर ही अधर में महामहिमामय भगवान् ऋषभदेव विराजमान थे । भ्रमरों द्वारा फैलाये हुए पराग से रंजित तथा गंगाजल से शीतल पुष्पों की वृष्टि भगवान् के आगे हो रही थी ( द्र० त्रयोविंश पर्व ) । भगवान् के समीप ही अशोक का विशाल वृक्ष था, जिसके हरे पत्ते मरकतमणि के थे प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000 00 17

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