Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 20
________________ और वह रत्नमय चित्र-विचित्र फूलों से सुशोभित था। उसकी शाखायें मन्द-मन्द वायु से हिल रही थीं। उस पर भ्रमर मद से मधुर आवाज में गुंजार कर रहे थे और कोयलें कूक रही थीं, जिससे ऐसा जान पड़ता था कि अशोक वृक्ष भगवान् की स्तुति कर रहा हो। भौरों के गुंजार और कोयलों की कूक से दसों दिशायें मुखरित हो रही थीं। अपनी हिलती शाखाओं से अशोक वृक्ष ऐसा लगता था, जैसे वह भगवान् के आगे नृत्य कर रहा हो और अपने झड़ते फूलों से वह भगवान् के समक्ष दीप्तिमय पुष्पांजलि अर्पित करता-सा प्रतीत होता था। __इस सन्दर्भ में 'भुजगशशिभृता' और रुक्मवती' वृत्त में आबद्ध महाकवि की रमणीय काव्यभाषिक पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं : मरकतहरितैः पत्रैमणिमयकुसुमैश्चित्रैः । मरुदुपविधुता: शाखाश्चिरमधृत महाशोकः ।। मदकलविरुतैङ्गरपि परपुष्टविहङ्गः । स्तुतिमिव भर्तुरशोको मुखरितदिक्कुरुते स्म ।। –(भुजंगशशिभृतावृत्त) व्यायतशाखादोश्चलनै: स्वैर्नृत्तमथासौ कर्तुमिवाये । पुष्पसमूहैरञ्जलिमिद्धं भर्तुरकार्षीत् व्यक्तमशोकः ।। ___ -(रुक्मवतीवृत्त, पर्व 23, श्लोक 36-38) यह पूरा अवतरण गत्वर चाक्षुष बिम्बों का समाहार बन गया है, जिसमें महाकवि जिनसेन ने गन्ध से अन्ध भ्रमरों के माध्यम से जहाँ घ्राणेन्द्रिय द्वारा आस्वाद्य घ्राणबिम्ब की अवतारणा की है, वहीं गंगाजल से शीतल पुष्पों में त्वगिन्द्रिय द्वारा अनुभवगम्य स्पर्श-बिम्ब का भी आवर्जक विनियोग किया है। साथ ही यहाँ अशोक वृक्ष में मानवीकरण की भी विनियुक्ति हुई है। महाकवि द्वारा प्राकृतिक उपादान अशोक वृक्ष में मानव-व्यापारों का कमनीय आरोप किया गया है। वस्तुत: यह मानवेतर प्रकृति के वानस्पतिक उपादानों में चेतना की स्वीकृति है। साथ ही यहाँ प्रस्तुत का अप्रस्तुतीकरण भी सातिशय मोहक हो उठा है। हम कह सकते हैं कि महाकवि जिनसेन का यह मानवीकरण उनकी सर्वात्मवादी दृष्टि का प्रकृति के खण्डचित्रों में सहृदयसंवेद्य कलात्मक प्रयोग है। महाकवि ने मानवीकरण जैसे अलंकार-बिम्बों के द्वारा विराट् प्रकृति को काव्य में बाँधने का सफल प्रयास किया है, जिसमें मानव-व्यापार और तद्विषयक आंगिक चेष्टा का प्रकृति पर समग्रता के साथ आरोप किया गया है। प्रकृति पर मानव-व्यापारों के आरोप की प्रवृत्ति जैनेतर महाकवि कालिदास आदि में भी मिलती है, किन्तु वनस्पति में जीवसिद्धि को स्वीकारने वाले आचार्य जिनसेन आदि श्रमण-महाकवियों में यह प्रवृत्ति विशेषरूप से परिलक्षित होती है। महाकवि आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण के अनुशीलन से यह स्पष्ट है कि वह शब्दशास्त्र के पारगामी विद्वान् थे। इसलिए उनकी काव्यभाषिक सृष्टि में वाग्वैदग्ध्य के साथ ही बिम्ब और सौन्दर्य के समाहार-सौष्ठव का चमत्कारी विनिवेश हुआ है। उनकी 40 18 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000

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