Book Title: Prakrit Vidya 2000 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 15
________________ अनुमोदना करें । देवताओं के लिये जीव के बलिदान को बंद करावें । शराब पीना, मांस भक्षण बन्द करावें । परस्त्री - अपहरण को रोकें। राजनीति में राजा अपने पुत्र को भी दण्ड देता है। सज्जन का पालन और दुर्जन का निग्रह करना राजनीति है । पञ्च पाप अधर्म हैं, इनका त्याग धर्म है । अधर्म ही अन्याय है । जिस राजा के शासन में प्रजा नीति से चले उस राजा को पुण्य प्राप्त होता है । अनीति से राज्य करने पर उसे पाप होता है । राजनीति वह है कि राजा राज्य भी करें और धर्म भी कमावें ।” 1 शौरसेनी प्राकृतभाषा की प्राचीन पाण्डुलिपियों का संरक्षण आचार्यश्री की प्रेरणा एवं उपदेश से शौरसेनी प्राकृत का प्राचीनतम ग्रन्थ धवला - जयधवलामहाधवला टीका समन्वित 'छक्खंडागमसुत्त', जो कर्नाटक राज्य के 'मूडबिद्री' के विशाल ताड़पत्रीय संग्रहालय में जीर्ण-शीर्ण हो रहा था, को संरक्षण प्राप्त हुआ। बाद में उसकी स्थायी रक्षा की दृष्टि से उसे ताम्रपत्र पर अंकित करवाया; क्योंकि उस समय छपाई - प्रकाश आदि का प्रचार ं नगण्य था । प्रकाशन का युग आने पर वह महाराष्ट्र - सोलापुर से प्रकाशित हुआ । इसके अतिरिक्त भी अन्यान्य कई पाण्डुलिपियों का संरक्षण आपके उपदेशों से विद्वानों द्वारा संपन्न हुआ । इसप्रकार इनके जीवन के राष्ट्र तथा समाजोत्थान के कार्य-सम्बन्धी विवरण प्राप्त कर तत्कालीन देश के उपराष्ट्रपति एवं महान् दार्शनिक डॉ० एस० राधाकृष्णन् उद्गार व्यक्त किये कि “ आचार्य श्री शान्तिसागर जी भारत की आत्मा के प्रतीक हैं तथा ऐसे लोग हमारे देश की आत्मा के मूर्तस्वरूप होते हैं ।” सन्त आचार्यश्री का देश तथा समाज के प्रति किया गया यह उपकार चिरस्मरणीय है । ऐसे - पुरुष को हम कोटि-कोटि वंदन करते हैं 1 सन्दर्भग्रंथ सूची 1. 'चारित्र चक्रवर्ती', ले० - पं० सुमेरचन्द्र दिवाकर । 2. 'जैनगजट', आचार्य शांतिसागर हीरक जयन्ती विशेषांक । सं० · पं० अजित कुमार पं० अजित शास्त्री । 3. 'जैनगजट', आचार्य शान्तिसागर जी की अमर - सल्लेखना विशेषांक । सं० कुमार शास्त्री । 4. आचार्य शान्ति सागर स्मृतिग्रंथ, सं० 1. श्री बालचंद देवचंद शाह । 2. श्री मोतीलाल मुलकचंद दोशी । प्राकृतविद्या + जुलाई-सितम्बर 2000 बुद्धि की महत्ता 'जीवत्यर्थ - दरिद्रोऽपि धी- दरिद्रो न जीवति । - ( क०स०सा० 10.8.42 ) धनहीन व्यक्ति जी सकता है; किन्तु बुद्धिहीन व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता । ** 00 13

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