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'आदिपुराण' में बिम्ब और सौन्दर्य
-विद्यावाचस्पति डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव महाकवि आचार्य जिनसेन द्वितीय (ई० सन् की आठवीं-नवीं शती) द्वारा प्रणीत आदि तीर्थंकर ऋषभदेव स्वामी के महिमाशाली जीवन की महागाथा से सन्दर्भित महाकाव्य आदिपुराण का बिम्ब-विधान और सौन्दर्य-चेतना की दृष्टि से अध्ययन अतिशय महत्त्वपूर्ण है। महाकवि जिनसेन की यह कालोत्तीर्ण पौराणिक काव्यकृति बिम्ब और सौन्दर्य जैसे भाषिक और साहित्यिक कला के चरम विकास के उत्तमोत्तम निदर्शनों का प्रशस्य प्रतीक है।
बिम्ब- वस्तुत: बिम्ब-विधान कल्पना तथा वाग्वैदग्ध्य का काव्यात्मक विनियोजन है। वाक्प्रयोग की कुशलता या दक्षता ही वाग्वैदग्ध्य है। जिस काव्य में वाग्वैदग्ध्य का जितना अधिक विनियोग रहता है, वह उतना ही अधिक भावप्रवण काव्य होता है और भावप्रवणता कल्पना की उदात्तता पर निर्भर होती है। भावप्रवणता से उत्पन्न कल्पना जब मूर्तरूप धारण करती है, तब बिम्बों की सष्टि होती है। इसप्रकार बिम्ब कल्पना का अनुगामी होती है।
बिम्ब-विधान कलाकार या काव्यकार की अमूर्त सहजानुभूति को इन्द्रियग्राह्यता प्रदान करता है। अत: बिम्ब को कल्पना का पुनरुत्पादन (री-प्रोडक्शन') कहना युक्तियुक्त होगा। कल्पना से यदि सामान्य और अमूर्त या वैचारिक चित्रों की उपलब्धि होती है, तो बिम्ब से विशेष और मूर्त या वास्तविक चित्रों की। आदिपुराण में अनेक ऐसे कलात्मक चित्र हैं, जो अपनी काव्यगत विशेषता से मनोरम बिम्बों की उद्भावना करते हैं। इस महनीय महाकाव्य में काल्पनिक और वास्तविक दोनों प्रकार की अनुभूतियों से बिम्बों का निर्माण हुआ है। इस क्रम में महाकवि जिनसेन ने बिम्ब-निर्माण के कई प्रकारों का आश्रय लिया है। जैसे— कुछ तो दृश्य के सादृश्य के आधार पर निर्मित हैं और कुछ संवेदन या तीव्र अनुभूति की प्रतिकृति या समानता पर निर्मित हुए हैं। इसीप्रकार कतिपय बिम्ब किसी मानसिक अवधारणा या विचारणा से निर्मित हुए हैं, तो कुछ बिम्बों का निर्माण किसी विशेष अर्थ को द्योतित करनेवाली घटनाओं से हुआ है। पुन: कुछ बिम्ब उपमान या अप्रस्तुत से, तो कुछ प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों पक्षों पर लागू होने वाले श्लेष से निर्मित हुए हैं।
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2000