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ज्योतिस्तत्त्वविवर्त वार्तिक' कृतः श्रीमहंसाह्वयाः,
जीयासुः सुमनो मनोरमगिरः ते वाचकाधीश्वराः ॥५॥ ( रचना संवत् १७३७, आ. शु. १०, रतलाम ) इसी 'न्यायसंग्रह' और उसकी बृहद्वृत्ति व न्यास का रचनाकाल वि. सं. १५१५ है । 'न्यायसंग्रह' मूल का मान स्वयं उन्होनें ६८ श्लोक और १० अक्षर बताया है, वैसे स्वोपज्ञन्यायार्थमञ्जूषा नामक बृहद्वृत्ति का मान साधिक ३०८५ श्लोक और स्वोपज्ञन्यास का मान १२०० श्लोक अनुमानत: बताया है ।
श्रीमहंसगणि अपनी गुरु परम्परा बताते हुए 'न्यायसंग्रह' की प्रशस्ति / पुष्पिका (colophon) में कहते हैं कि तपागच्छीय आचार्य श्रीजगच्चन्द्रसूरिजी की पट्ट परम्परा में हुए आचार्य श्रीदेवसुन्दरसूरिजी के पट्टधर आचार्य श्री सोमसुन्दरसूरिजी के शासनकाल में आचार्य श्रीमुनिसुन्दरसूरिजी जिन्होंने अपने जीवनकाल में चौबीस बार सूरिमंत्र की विधिपूर्वक विशुद्ध आम्नाय और तप के साथ आराधना की थी और संतिकरं स्तोत्र की रचना करके महामारि रोग का निवारण किया था, उनके स्वहस्तों से श्रीहेमहंसगणि की दीक्षा हुई थी । सर्वत्र श्रीहेमहंसगणि ने उसका दीक्षागुरु के रूप में निर्देश किया है। साथ साथ उन्होंने आचार्य श्रीजयचन्द्रसूरिजी का भी निर्देश किया है।
षडावश्यक बालावबोध के अन्त में उन्होंने आचार्य श्रीसोमसुन्दरसूरिजी, आचार्य श्रीमुनिसुन्दरसूरिजी तथा आचार्य श्रीजयचन्द्रसूरिजी के नाम का निर्देश किया है किन्तु आचार्य श्रीरत्नशेखरसूरिजी के नाम का निर्देश नहीं किया है । जबकि 'न्यायसंग्रह' की बृहद्वृत्ति व न्यास के अन्त में तपागच्छ के नायक के रूप में उन्होंने श्रीरत्नशेखरसूरिजी का निर्देश किया है अर्थात् उसी समय आ. श्रीसोमसुन्दरसूरिजी आ. श्रीमुनिसुन्दरसूरिजी व आ. श्रीजयचन्द्रसूरिजी विद्यमान नहीं होंगे। इससे अतिरिक्त महोपाध्याय श्री चारित्ररत्नगणि का अपने विद्यागुरु के रूप में निर्देश किया है। इससे यह निश्चित होता है कि उनके जीवन में विद्या व चारित्रविकास में इन चारों आचार्य भगवन्त व श्रीचारित्ररत्नगणि का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा होगा ।
दूसरा एक ओर प्रश्न यह है कि श्रीहेमहंसगणि के गुरु कौन थे ? श्रीमुनिसुंदरसूरिजी श्रीजयचन्द्रसूरिजी या श्रीचारित्ररत्नगणि ? षडावश्यकबालावबोध के अनुसार श्रीमोहनलाल दलीचंद देसाई ने उनको श्रीजयचन्द्रसूरिजी शिष्य बताये हैं तो 'आरंभसिद्धि' और 'न्यायसंग्रह' के अनुसार श्रीहेमहंसगणि को उपाध्याय श्रीचारित्ररत्नगणि के शिष्य बताये हैं 126
त्रिपुटी महाराज और श्रीयुत मोहनलाल दलीचंद देसाई 'न्यायसंग्रह' मूल की रचना संवत् १५१५ बताते हैं और इसकी 'न्यायार्थमञ्जूषा' नामक बृहद्वृत्ति की रचना संवत् १५१६ बताते हैं । 27 जबकि 'न्यायसंग्रह' की प्रशस्ति में और पुष्पिका में उन्होंने स्वयं 'न्यायार्थमञ्जूषा' नामक बृहद्वृत्ति की रचना संवत् १५१५ ही बतायी है 128 महोपाध्याय (वाचक) श्रीहेमहंसगणि का दूसरा नाम पं. हंसदेव था । आ. श्रीसोमसुन्दरसूरि ने उनको उपाध्याय पद प्रदान किया था । उन्होंने सं. १५१२ के जे. शु. ५ को खेरालु (गांव) में 'रत्नशेखर कथा' लिखी थी और उसी वर्ष में भा. व. ५ को डाभला (गांव) में पं. तीर्थराजगणि के लिए 'श्रीप्रबन्ध लिखा था । हाल ही में श्रीमहंसगणिविरचित श्रीयुगादिदेव का एक संस्कृत स्तवन प्राप्त हुआ है। इसकी विशेषता यह है कि इसके कुल मिलाकर १३ श्लोक में से प्रथम और अन्तिम श्लोक को छोडकर शेष ग्यारह श्लोक में कहीं भी, किसी 26. जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ. ५१५, जैन परम्परानो इतिहास, भाग-३, पृ. ४६० - ४६१.
27.
जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ. ५१५, जैन परम्परानो इतिहास, भाग - ३, पृ. ४६० - ४६१. 28. द्रष्टव्यः न्यायसंग्रह, पृ. १५४, १५५
29.
द्रष्टव्य : श्री आदिनाथ स्तवनम् । सम्पादक : प. पू. आ. श्रीविजयसूर्योदयपरिशिष्य मुनिश्री धर्मकीर्तिविजयजी (अनुसन्धान - ७, शोधपत्रिका, पृ. ८१, प्रकाः क. स. श्रीहे. न. ज. स्मृ. सं. शि. निधि, अहमदाबाद )
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