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सादिआदिपदेसबंधपरूवणा सादियबंधो वा अणादियबंधो वा धुवबंधो वा अद्भुवबंधो वा। मोहाउगाणं उक्क० अणु०-जह०-अजह०पदेसबंधो किं सादि०४ ? सादिय-अदुवबंधो। एवं ओघभंगो अचक्खु०-भवसि० । णवरि भवसि० धुवं वज०। सेसाणं उक०-अणु०-जह०-अजह०पदेसबंधो सादिय-अद्धवबंधो।
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क्या अनादिबन्ध है, क्या ध्रुवबन्ध है या क्या. अध्रुवबन्ध है ? सादिबन्ध है, अनादिबन्ध है, ध्रुवबन्ध है और अध्रुवबन्ध है। मोहनीय और आयुकर्मका उत्कृष्टप्रदेशबन्ध, अनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध, जघन्य प्रदेशबन्ध और अजघन्यप्रदेशबन्ध क्या सादिबन्ध है, क्या अनादिबन्ध है, क्या ध्रुवबन्ध है या क्या अध्रवबन्ध है ? सादिबन्ध है और अध्रुवबन्ध है । इसी प्रकार ओघके समान अचक्षुदर्शनवाले और भव्य जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि भव्य जीवोंके ध्रुवभंग नहीं होता। शेष सब मार्गणाओंमें उत्कृष्टप्रदेशबन्ध, अनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध, जघन्यप्रदेशबन्ध और अजघन्यप्रदेशबन्ध सादि और अध्रुव दो प्रकारका होता है।
विशेषार्थ-यहाँ मोहनीय और आयुकर्मके सिवा शेष छह कर्मो का उत्कृष्टप्रदेशबन्ध सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें होनेसे इसके पहले अनादिकालसे इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता रहता है, इसलिये तो इन छह कर्माका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अनादि है और उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होने पर जब पुनः वह जीव गिर कर अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करने लगता है, तब वह सादि है। तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धमें ध्रुव और अध्रुव ये भेद भव्य और अभव्यकी अपेक्षासे हैं। यही कारण है कि इन छह कर्मों का अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सादि, आदिके भेदसे चारों प्रकारका बतलाया है। इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें होता है, इसलिये वह सादि और अध्रुव यह दो प्रकारका है, यह स्पष्ट ही है। अब रहे जघन्य और अजघन्यबन्ध सो इनका जघन्यबन्ध सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तके भवके प्रथम समयमें सम्भव है और इसके बाद अजघन्यबन्ध होता है। यतः इस पर्यायका प्राप्त होना पुनः-पुनः संभव है, अतः ये दोनों बन्ध सादि और अध्रव इस प्रकार दो प्रकारके ही कहे हैं। मोहनीय और आयुके उत्कृष्ट आदि चारों प्रकारके बन्ध सादि और अध्रुव ही हैं। कारण कि आयुकर्म तो अध्रुवबन्धी है ही, क्योंकि उसका बन्ध विवक्षित भवके प्रथम त्रिभागमें या उसके बाद द्वितीयादि विभागों में होता है। यदि वहाँ भी न हो तो अन्तमें अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर होता है, इसलिए इसके उत्कृष्ट आदि चारों सादि और अध्रुव हैं, यह स्पष्ट ही है। रहा मोहनीय कर्म सो इसका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध मिथ्याष्टिके भी होता है और जघन्य प्रदेशबन्ध सुक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके भवके प्रथम समयमें होता है। यतः इन दोनों प्रकारके बन्धोंका पुनः-पुनः प्राप्त होना संभव है और इनके बाद क्रमशः अनुत्कृष्ट और अजघन्य प्रदेशबन्धोंका भी पुनः पुनः प्राप्त होना संभव है, अतः ये चारों प्रकारके बन्ध सादि और अध्रुव ये दो प्रकारके कहे हैं। अचक्षुदर्शनऔर भव्यमार्गणा सूक्ष्मसांपरायके आगे तक भी संभव हैं, अतः इनमें ओघप्ररूपणा अविकल घटित हो जानेसे इनकी प्ररूपणा ओघके समान कही है। मात्र भव्य मार्गणामें ध्रुव भंग संभव नहीं है। शेष सब मार्गणाएँ बदलती रहती हैं। अतः उनमें सब कर्मो के उत्कृष्टादि चारोंके सादि और अध्रुव ये दो ही भंग कहे हैं। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि जिन मार्गणाओंमें जितने कर्मोंका बन्ध संभव हो तथा ओष या आदेशसे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य बन्ध संभव हो,उसी अपेक्षासे ये भंग घटित करने चाहिए ।
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