Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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व्यक्तित्त्व एवं कृतित्व
वे महापुरुष संकीर्णता के घेरे में कभी नहीं आये । एक बार भोपालगढ़ में युवाचार्य श्री मधुकर सुनिजी और प्राचार्य श्री के पण्डित रत्न श्री लक्ष्मीचन्दजी महाराज का समागम हुआ । दूसरे दिन प्राचार्य भगवंत की जन्म तिथि थी । उस पर मधुकरजी म० ने प्राचार्य भगवंत के गुणानुवाद किये । उनका सब के साथ प्रेम सम्बन्ध था । उन्होंने कहा – इस बार जोधपुर में आपका चातुर्मास हो रहा है, उधर सिंहपोल में दूसरों का चातुर्मास हो रहा है । प्राचार्य भगवंत ने कहा - ' हम दोनों अलग-अलग थोड़े ही हैं ।' आचार्य भगवंत ने कितनी शांति से जबाव दिया । चातुर्मास के पूर्व ही कह दिया जिसको जहां सुविधा हो लाभ लेवें ।' मेरे भक्त मेरे पास ही आएँ, ऐसी उनकी भावना नहीं थी । वे सर्व प्रिय थे ।
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आचार्य भगवंत की विशालता अनूठी थी । एक राजा ने घोषणा की किं मैं गुरु बनाना चाहता हूँ । धर्म गुरु आएँ। मैं उन्हें मैदान देता हूँ । सात दिन में सीमा बांध सकें, बांध लें, ईंट- चूना पत्थर दे दिया । कई धर्मगुरु पहुँचे । सब अपनी-अपनी सीमा बांधने लगे । राजा आया, वह सीमा देखने लगा । राजा ने देखा - एक मस्तराम पेड़ के नीचे बैठा था । पूछा- क्या बात है, आप क्यों बैठे हो ? मस्तराम बोला- राजन् ! मैं क्या सीमा बांधू मेरी सीमा तो क्षितिज तक है । राजा ने और किसी को नहीं, मस्तराम को गुरु बनाया । जैसे उस मस्तराम की सीमा विशाल थी, आचार्य भगवंत की सीमा भी विशाल थी । वे चाहे श्रमण संघ में रहे, तब भी वही बात, श्रमरण संघ में नहीं रहे तब भी वही बात । श्रमण संघ से बाहर निकले उस समय श्रावकों ने कहा -किसके बलबूते पर अलग हो रहे हो ? प्राचार्य भगवंत ने कहा - ' मैं आत्मा के बलबूते पर अलग हो रहा हूँ । मैं अपनी आत्म-शांति और समाधि के लिये अलग हो रहा हूँ ।' उस समय लोग सोचने लगे - 'कौन पूछेगा' पर आपने देखा है - आचार्य भगवंत जहां भी पधारे सब जगह श्रद्धालु भक्तों से स्थानक सदा भरे रहे । चाहे प्रवचन का समय हो चाहे विहार का, श्रावक-श्राविकाओं का निरन्तर दर्शन-वंदन के लिये आवागमन बना ही रहा । स्थानक छोटे पड़ने लग गये । उनका जबरदस्त प्रभाव था कारण कि वे सबके थे, सब उनके थे । ऐसे महान् आचार्य जिन्हें कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य तीनों कहा जा सकता है ।
उस महापुरुष के व्यक्तित्व और कृतित्व पर उनके गुणों पर उनकी संयम साधना पर और उनकी देन पर जितना कहा जाय कम है । प्राप प्राचार्य भगवंत के गुण-कीर्तन करके ही न रह जाएँ, उनकी सद् शिक्षाओं को जीवन में उतारेंगे तो आपका जीवन बनेगा ।
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