Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal
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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
हर समय उनकी यही शिक्षा रहती थी । वे हर समय शिक्षा देते ही रहते थे।
. वे महापुरुष चाहे जहाँ रहते, हर समय शिक्षा देते ही रहते । जयपुर में रामनिवास बाग से गुजर रहे थे। उस समय शेर गरज रहा था । आचार्य भगवंत ने फरमाया-'क्या बोलता है ?' प्राचार्य भगवंत से मैंने कहा'बावजी ! शेर गरज रहा है ।' गुरुदेव बोले- 'मैं हूँ, मैं हूँ कह कर बता रहा है कि मैं पिंजरे में पड़ा हूँ। इसलिये मेरी शक्ति काम नहीं कर रही है । यह
आत्मा भी शरीर रूपी पिंजरे में रही हुई है। आत्मा भी समय-समय पर हुंकारती है—मैं हूँ अर्थात् मैं अनन्त ज्ञान से सम्पन्न हूँ, मैं अनन्त दर्शन से सम्पन्न हूँ आदि अादि ।
एक बार भगवंत सुबोध कॉलेज में खड़े थे। पास में पत्थर गढ़ने वाले व्यक्ति पत्थर गढ़ रहे थे । पत्थर गढ़ते वह कारीगर पानी छांट रहा था । गुरुदेव ने पूछा- 'यह क्या कर रहा है ?' मैंने कहा-'काम कर रहा है ।' आचार्य भगवन् ने कहा-'पत्थर पर पानी डाल कर नरम बना रहा है, पत्थर कोमल हो जायगा तब गढ़ा जायगा।' आचार्य भगवंत ने फरमाया कि 'शिष्य भी कोमल होगा तो गढ़ा जायगा।' वे हर समय जीवन-निर्माण की बात बताया करते थे। उनकी छोटी-छोटी बातों में कितनी बड़ी शिक्षाएँ होती थीं। वे शिल्पाचार्य की तरह थे।
धर्माचार्य तो वे थे ही । वर्षों तक चतुर्विध संघ को कुशलतापूर्वक संभाला और उसी का परिणाम है कि आज यह फुलवारी अनेक रंगों में दिखाई दे रही है । आज चतुर्विध संघ का जो सुन्दर रूप दिखाई दे रहा है, वह उन्हीं महापुरुषों के पुण्य प्रताप से है । __आचार्य भगवंत का जीवन कैसा था, आपने देखा है, आप जानते भी हैं । उनमें थकावट का कभी काम नहीं। वे कितना पुरुषार्थ करते थे ! वे सामायिकस्वाध्याय के लिये अधिक बल देते थे । दिल्ली वाले आचार्य भगवंत के श्री चरणों में चातुर्मास की विनती लेकर आये । उनसे कहा-'पाप प्रति वर्ष विनती लेकर आते हैं तो क्यों नहीं आप सामायिक-स्वाध्याय का सिलसिला प्रारम्भ कर अपने पैरों पर खड़े होते ?'
. आचार्य भगवंत सदा कुछ न कुछ देते ही रहते । जब तक स्वस्थ रहे स्थान-स्थान पर भ्रमण कर ज्ञान दान दिया और अन्त समय में भी कितनी उदारता, विशालता ! वे परम्परा के आचार्य होकर भी कभी बंधे नहीं रहे । वे फरमाते-'जिनको जहाँ श्रद्धा हो वहाँ जानो पर कुछ न कुछ करो जरूर।'
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