Book Title: Jine ke Usul
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation
View full book text
________________
४९
जीने का उसूल निन्दा-रस
औरों की बातों में वे लोग रस लेते हैं, जिनके स्वयं के जीवन में रस नहीं होता।
निभाना
एक-दूसरे को निभाते रहने की बजाय एक-दूसरे को जीना शुरू करें।
निःस्वार्थ सेवा
आशीर्वाद तब तक नहीं मिलता, जब तक यह पता न चले कि यह नि:स्वार्थ सेवा कर रहा है।
नियति
जहाँ बुद्धि और पुरुषार्थ दोनों पराजित हो जाते हैं, वहाँ नियति की रेखा ही सहारा बनती है।
नियम-विज्ञान
हम परम्परा और नियमों को वैज्ञानिकता के साथ स्वीकारें, अंध आदेश के रूप में नहीं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138