Book Title: Jine ke Usul
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 131
________________ १२४ जीने का उसूल सेवाधर्म मानवता की सेवा करने वाले हाथ उतने ही धन्य हैं, जितने परमात्मा की प्रार्थना करने वाले होंठ। सेवाभाव महत्त्व इसका नहीं है कि हमारे कितने सेवक हैं, महत्त्व इसका है कि हममें कितना सेवा-भाव है। सेवा-समर्पण किसी की सेवा करते समय स्वयं को इतना तल्लीन कर लो, मानो तुम परमात्मा की पूजा कर रहे हो। सोच जो सोच नहीं सकता, वह मूर्ख है। जो सोचना नहीं चाहता, वह अंधविश्वासी है और जिसमें सोचने का साहस नहीं है, वह गुलाम है। सोचना सोचना मनुष्य का स्वभाव है, पर सोचना भी कला है। हम जब भी सोचें- सही सोचें, सन्तुलित सोचें और समग्रता से सोचें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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